भगवान श्री राम *लक्ष्मण* और सीता जी जब पिता महाराज दशरथ से आज्ञा एवं विदा लेने गये तो दशरथ जी ने सुमन्त्र को आदेश दिया :---
*सुठि सुकुमार कुमार दोउ , जनक सुता सुकुमारी !*
*रथ चढ़ाइ देखराउ वन , फिरेहुं गए दिन चारि !!*
महारज की आज्ञा पाकर अपने राजसी वस्त्रों का त्याग करके मुनियों के वस्त्र धारण कर श्री राम *लक्ष्मण* एवं सीताजी सुमंत्र जी के रथ पर सवार होकर मातृभूमि को प्रणाम करके पूरे राजमहल को रोते बिलखते छोड़ कर निकल पड़े | प्रथम रात्रि तमसा के किनारे व्यतीत करने के लिए रुके श्रीराम रात्रि में ही अपने प्रेमी नगरवासियों को सोता छोड़कर वहां से निकल पड़े | जब वह गंगा के किनारे पहुंचे तो निषादराज गुह ने उनका स्वागत किया | रात में जब श्रीराम सीता एवं सुमंत्र जी विश्राम करने लगे तो *लक्ष्मण जी* एवं निषादराज पहरेदारी कर रहे हैं | भगवान श्रीराम को भूमि शयन करते हुए देखकर निषादराज शोकसंतृप्त होकर विलाप करने लगा | *लक्ष्मण जी* कर्मयोंगी है | जिस प्रकार विषाद से भरे अर्जुन को कुरुक्षेत्र के समरांगण में *योगेश्वर श्रीकृष्ण* ने गीता का ज्ञान दिया था , जिसमें ज्ञानयोग , कर्मयोग , भक्तियोग की महिमा का बखान हुआ है , उसी प्रकार मानस में जो उपदेश *लक्ष्मण जी* ने निषादराज को दिया उसे *लक्ष्मण गीता* के नाम से जाना जाता है | *लक्ष्मण गीता* श्री रामचरितमानस का वह प्रसंग है जिसका वर्णन एवं विस्तृत व्याख्या बहुत ही कम देखने को मिलती है | पृथ्वी पर रहे श्री राम जानकी को देखकर निषादराज गुह को विषाद हो गया | और वे कैकेई को कोसते हुए कहने लगे :---
*कैकयनंदनि मन्दमति कठिन कुटिलपन कीन्ह !*
*जेहि रघुनंदन जानकिहिं सुख अवसर दुख दीन्ह !!*
निषादराज कहता है कि :-- कैकेई ने तो बहुत ही नीचता का कार्य किया है जिसने सुख भोगने के समय श्री राम जानकी को दुख दे दिया | जैसे ही निषाद राज व्याकुल होकर कैकेई को राम और सीता के दुख का कारण बताकर विलाप करने लगता है वैसे ही *लक्ष्मण जी* ने *"कर्म मीमांसा"* का अद्भुत उल्लेख करते हुए निषादराज को *कर्मयोग* का दिव्य उपदेश दिया | *लक्ष्मण जी* कहते हैं कि हे भैया निषाद राज !
*काहु न कोउ सुख दुख कर दाता !*
*निज कृत करम भोग सबु भ्राता !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं ! हे निषादराज ! मेरी बात को ध्यान से सुनो इस संसार में न कोई किसी को सुख प्रदान करता है और ना ही दुख देता है , सभी प्राणी अपने ही कर्मानुसार सुख एवं दुख का भोग करते हैं | जब भी कोई कर्ता बनकर कोई भी कर्म करता है तो उसका सकारात्मक या नकारात्मक जो भी परिणाम होता है उसे ही भोगना पड़ता है | कोई भी परिस्थित सुख एवं दुख के लिए दोषी नहीं होती है क्योंकि परिस्थितियों का सृजन हमारे द्वारा किया जाता है , इसलिए हे भैया ! किसी को दोषी ठहराना कदापि उचित नहीं है | मैं तो कहता हूं कि उचित तो यह है कि अपने द्वारा किए जाने वाले कर्मों को सुधारा जाय ! इसके लिए यह परम आवश्यक है कि कोई भी कर्म करने के पहले धैर्य धारण करना चाहिए | यदि कोई भी कर्म करने से पहले विचार कर राग द्वेष को अलग करते हुए कर्म किया जाय तो हमारे कर्म सुधर सकते हैं |
*जोग वियोग भोग भल मंदा !*
*हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा !!*
*जनम मरन जहं लगि जग जालू !*
*संपति बिपति करम अरु कालू !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं कि हे भैया निषादराज ! इस संसार में मिलना , बिछड़ना भले - बुरे लोग , शत्रु - मित्र और उदासीन सभी के सभी केवल भ्रम के बंधन हैं | जन्म -:मृत्यु , संपत्ति - बिपति , कर्म एवं काल सब संसार के जंजाल है , एवं यह सभी मनुष्य के कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होते हैं | *कर्मयोग* की शिक्षा निषादराज को देते हुए *कर्मयोगी श्री लक्ष्मण जी* कहते हैं :- निषादराज संसार में जितने भी भोगविलास , ऐश्वर्य हैं सब राग एवं द्वेष को ही उत्पन्न करने वाले हैं , जब भी मनुष्य इन भावनाओं से प्रेरित होकर कर्म करता है तो उसमें स्वार्थ के अतिरिक्त परमार्थ हो ही नहीं सकता | मनुष्य के स्वार्थमय कर्म ही मनुष्य को बंधन में जकड़ते रहते हैं | अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर मनुष्य एक के बाद दूसरी इच्छाओं को पूर्ण करते हुए कर्म बन्धन में जकड़ता चला जाता है | *कर्म मीमांसा* की व्याख्या करते हुए *लक्ष्मण जी* कहते हैं | हे निषादराज ! जब मनुष्य राग के वशीभूत होता है अर्थात विषय , वासना , वात्सल्य , प्रेम , स्पर्श इत्यादि भावनाएं जिनसे सुख की इच्छा हो उत्पन्न होती है यह कर्म मनुष्य को सुख प्रदान करते हैं | वहीं द्वेष अर्थात बदला , अपमान , ईर्ष्या , अभिमान , परपीड़ा आदि भावों के वशीभूत होकर जब मनुष्य कर्म करता है तो वह दुख को भोगता है | इस प्रकार हमारे सुख एवं दुख का कारण स्वयं हमारे कर्म ही हैं | हे निषादराज ! सांसारिक जीव जब कर्म के महत्व को समझ लेता है एवं परोपकार की भावनाओं से कर्म करता है तो वह समभाव में रहता है | हे निषादराज !----
*अस विचारि नहिं कीजिअ रोषू !*
*काहुहिं बादि न दीजिअ दोषू !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं ! हे भैया निषादराज ! कर्म के मर्म को समझते हुए किसी को भी दोषी मानकर क्रोध , विषाद या बिलाप नहीं करना चाहिए |
*शेष अगले भाग में*