*लक्ष्मण जी* को यदि गोस्वामी जी *चातक* कहकर यह प्रतिपादित करते हैं कि लक्ष्मण कि ऐसे *चातक* हैं जो श्री राम रूपी स्वाति नक्षत्र के अतिरिक्त कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकते अपितु श्री राम जी के लिए सर्वस्व निछावर भी कर सकते हैं | तुलसीदास जी के द्वारा प्राप्त उपमा को सही सिद्ध करने का अवसर अयोध्या में आ ही गया | भगवान श्री राम के राजतिलक की तैयारी होते होते उनके वन गमन की तैयारी बन गई | ऐसे में भला *चातक* अर्थात *लक्ष्मण जी* की क्या दशा होगी ? विचार कीजिएगा | जैसे ही *लक्ष्मण जी* ने सुना कि थी राम को चौदह वर्षों के लिए बनवास मिला है वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए | जहां जैसे थे वैसे विकलता में भरे हुए श्री राम के पास दौड़े चले आये | श्रीराम ने देखा कि *लक्ष्मण जी* का मुख उदास है , शरीर काँप रहा है , शरीर के सारे रोंगटे खड़े हैं , दोनों आंखें अश्रुजलसे लबालब भरी हैं | *लक्ष्मण जी* की वह दशा थी जैसे किसी मछली को जल से निकाल कर बाहर फेंक दिया गया हो | *लक्ष्मण जी* कुछ बोल नहीं पाए और एक अनजाने भय से भयभीत होकर भगवान श्री राम के चरणों को पकड़ लिया | वीर साहसी *लक्ष्मण* को आखिर क्या भय हो गया ? इसको बताते हुए गोस्वामी जी लिखते हैं कि :-- *लक्ष्मण जी* को एक ही भय भयभीत कर रहा था कि :---
*मो कहुँ काह कहब रघुनाथा !*
*रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा !!*
*लक्ष्मण जी* को एक ही भय था कि बचपन से से लेकर आज तक जिन की परछाई बनकर मैं रहा हूं , जिनके बिना कभी सांस भी लेने की नहीं सोंची , वही प्राण आधार श्री राम जी आज बन को जाने को तैयार हैं मैं तो उनका दास हूँ ! आज तक उनकी आज्ञा का पालन करना ही हमारा कर्तव्य रहा है , कहीं मुझे अयोध्या में रहने की आज्ञा न दे दें ! इसी भय से भयभीत *लक्ष्मण* का गौरवर्ण पीतवर्ण में परिवर्तित हो गया | भगवान के सामने खड़े होकर हाथ जोड़कर रो रहे हैं |
भक्तों की भक्ति जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचती है तो भगवान के सम्मुख आकर भी भक्त कुछ कहने की स्थिति में नहीं होता है , उसकी स्थिति उसके आंसू ही बताते हैं | *लक्ष्मण* की दीन अवस्था को देखकर श्रीराम ने कहा कि *हे भैया लक्ष्मण !* यह जीवन माता पिता ने दिया है और आज उन्हीं के द्वारा हमें बनवास मिला है तो मैं तो वन को जा रहा हूं और तुम माता पिता गुरु के चरणों की सेवा करो और जीवन का लाभ लो |
*लक्ष्मण जी* का हृदय डूबने लगा | श्री राम जी ने कहा :- *लक्ष्मण* मैं तुम्हें जानता हूं ! परंतु विचार करो कि इस समय अयोध्या में भरत - शत्रुघ्न भी नहीं हैं यदि तुम भी वनवास जाते हो तो अयोध्या को कौन संभालेगा ??
श्री राम जी उनको समझा रहे हैं परंतु *लक्ष्मण* मानो सुन ही नहीं रहे हैं ! आंसुओं से उनका वक्षस्थल भीग गया है , और लक्ष्मण जी ने अपने भैया के चरणों को पकड़ लिया ! *विचार कीजिए लक्ष्मण की दशा को !* जब भक्त भगवान के पास जाते है तो भगवान से भांति भाति के वरदान एवं कामनाओं की पूर्ति चाहते हैं , परंतु धन्य हैं *लक्ष्मण* जैसे अनन्य भक्त जिन्होंने बिना मांगे मिल रहे को भी ठुकरा दिया और भगवान से न मांग करके भगवान को मांग लिया | श्री राम के चरणों को पकड़कर *लक्ष्मण जी* दीन बचन में बोले :- आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक हूं यदि आप मुझे छोड़ भी देंगे तो मैं कुछ कर नहीं पाऊंगा ! आप मुझे गुरु एवं माता पिता की सेवा करने को कह रहे हैं परंतु आप तो मुझे और मेरे स्वभाव को जानते हैं कि :---
*गुरु पितु मातु न जानउं काहू !*
*कहउं सुभाउ नाथ पतिआहू !!*
*जहं लगि जगत सनेह सगाई !*
*प्रीति प्रतीति निगम निज गाई !!*
*मोरे सबइ एक तुम स्वामी !*
*दीन बंधु उर अंतर्यामी !!*
*लक्ष्मण* ने कहा भैया ! मैं कैसा हूं आप तो जानते हैं ! विश्वास करें कि मैं आपको छोड़कर गुरु , माता , पिता किसी को जानता ही नहीं ! इस संसार में जहाँ तक स्नेह का सम्बन्ध , प्रेम और विश्वास है ! हे भैया ! आप तो जानते हैं फिर भी क्यों नहीं समझते कि मेरे लिए आप ही कुछ हो |
हे भैया ! आपकी इच्छा हो तो आप मुझे त्याग कर चले जाइए मैं आपकी आज्ञा का दास हूं ! परंतु एक बात अवश्य कहूँगा कि::-
*धरम नीति उपदेशिअ ताही !*
*कीरति भूति सुगति प्रिय जाही !!*
*मन क्रम बचन चरन रत होई !*
*कृपासिंधु परिहरिउ कि सोई !!*
*लक्ष्मण जी* बिलखते हुए करते है कि हे भगवन ! धर्म और नीति का उपदेश तो उसे करना चाहिए जो कीर्ति , विभूति और सद्गति की कामना करता हो , परंतु जो मन वचन एवं कर्म से आपके चरणों में ही प्रीत रखता हो क्या उसे भी त्यागा जा सकता है ??
जैसा कि पूर्व से होता आया है उसी प्रकार आज फिर भक्त की निश्छल भक्ति पर भगवान को हारना पड़ा | *लक्ष्मण जी* के अथाह प्रेम एवं भक्ति को देखकर श्री राम जी के नेत्र भी आंसुओं से भर गए और भरे गले से ये बोल पड़े :--
*मांगहुं विदा मात सन जाई !*
*आवहुं बैगि चलहुं वन भाई !!*
जाओ भैया ! माता से विदा लेकर के आओ और मेरे साथ बन को चलो ! यह श्री राम जी के वचन नहीं थे बल्कि *लक्ष्मण जी* के लिए प्राणदायी अमृत बिंदु थे | बार-बार प्रणाम करके *लक्ष्मण जी* अति शीघ्र वहां से माता सुमित्रा के महल की ओर चल पड़े ! अतिशीघ्र इसलिए कि कहीं फिर भैया का विचार न बदल जाय !
तुलसीदास जी ने *चातक* की जो उपमा *लक्ष्मण जी* को दी थी आज उसे *लक्ष्मण जी* ने सिद्ध कर दिया |