रामायण में *लक्ष्मण जी* का चरित्र बहुत ही सूक्ष्म दर्शाया गया है | यह भी सच है कि जितना महत्व *भरत जी* का है उससे कम *लक्ष्मण जी* का नहीं है | दोनों ही अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं परंतु यदि साहित्यिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों की उपमायें भिन्न हैं | पहले तो देख लिया जाय कि *भरत जी* क्या है ?? मानस में बाबा जी ने लिखा है :--
*भरतु हंस रविवंस तड़ागा !*
*जनमि कीन्ह गुण दोष विभागा !!*
*गहि गुन पय तजि अवगुन वारी !*
*निज जस जगत कीन्ह उजियारी !!*
अर्थात :- *भरत जी* ने सूर्यवंश रूपी तालाब में हंस रूप में जन्म लेकर गुण एवं दोष का विभाग कर दिया | गुणरूपी दूध को ग्रहण कर अवगुण रूपी जल को त्यागकर *भरत* ने अपने यश को जगत में उज्जवल कर दिया | गोस्वामी जी ने *भरत* की तुलना हंस ले कर दी है | परंतु *लक्ष्मण जी* को उन्होंने हंस नहीं कहा है | मानस से अलग हटते हुए विनय पत्रिका में *लक्ष्मण जी* को *"भावते भरत के"* कहकर सब से नाता जोड़ने का प्रयास किया है | तुलसीदास जी मानस में सबकी वंदना करते हैं | ध्यान देने योग्य बात यह है कि *भरत जी* की वंदना में एक पद लिखने वाले तुलसीदास जी *लक्ष्मण जी* की वन्दना में सबसे ज्यादा दो पद लिखते हैं | तुलसीदास जी विनय पत्रिका *लक्ष्मण जी* की वंदना करते हुए कहते हैं :---
*लाल लाडिले लखन हित हौं जन के !*
*सुमिरे संकटहारी , सकल सुमंगलकारी ,*
*पालक कृपालु अपने पन के !! १!!*
*धरनी धरन हार , भंजन भुवनभार ,*
*अवतार साहसी सहस फन के !*
*सत्यसंध सत्यव्रत परम धरम रत ,*
*निरमल करम वचन अरु मन के !! २ !!*
*रूप के निधान धनुवान पानि तून कटि ,*
*महावीर विदित जितैया बड़े रन के !*
*सेवक सुख दायक सबल सब लायक ,*
*गायक जानकीनाथ गुन गन के !! ३ !!*
*"भावते भरत के" सुमित्रा सीता के दुलारे ,*
*चातक चतुर राम स्याम घन के !*
*वल्लभ उरमिला के सुलभ सनेह बस ,*
*धनी धन तुलसी से निरधन के !! ४ !!*
तुलसीदास जी कहते हैं कि *लक्ष्मण जी* का सबसे नाता है | भक्तों के हितैषी , दीनों पर कृपालु , पृथ्वी भारहरण , सत्यव्रत , सुंदरता के भंडार , महाबली , भरत के प्यारे , सुमित्रा एवं सीता के दुलारे तथा राम रूपी श्याम मेघ के चतुर चातक हैं | यहां तुलसीदास जी ने *लक्ष्मण जी* को चातक की संज्ञा दी है | तुलसीदास जी ने इस पद में स्वयं को निर्धन एवं *लक्ष्मण जी* को अपना धन बताया है | अब जो लोग यह कहते हैं कि तुलसीदास जी ने मानस में भरत जी का विस्तृत वर्णन किया है परंतु *लक्ष्मण जी* को छुपा लिया तो उनको विचार करना चाहिए कि *लक्ष्मण जी* को तुलसी दास जी अपना धन मानते हैं और अपना धन तो सभी छुपाते हैं | यदि गोस्वामी जी ने मानस में *लक्ष्मण जी* को छुपाया तो उसका कारण उनकी न्यूनता नहीं अपितु विशेषता है और वह विशेषता गोस्वामी जी *"चातक चतुर राम श्याम घन के"* कहकर प्रकट करते हैं |
*शेष अगले भाग में*