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आज प्रत्येक व्यक्ति का मन चलता फिरता कुरुक्षेत्र बना हुआ है| जहां पर हमारी निकृष्ट और उत्कृष्ट ,सद्गुण और दुर्गुण ,धर्म और अधर्म दोनों ही प्रकार की प्रुवृत्तियों में निरंतर द्वंद्व चलता रहता है| हमारी आंतरिक प्रुवृत्तियाँ हमसे वो सब करवा लेती है जिन्हें हम मन से तो स्वीकार नही करते लेकिन करने के लि

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ये बात तो सब मानते है की भगवान् है हर व्यक्ति की सोच, शारीरिकर मानसिक स्थिति भिन्न बनाई है| हर व्यक्ति आकार प्रकार में दुसरे व्यक्ति से भिन्न है स्वभाव व् गुणों से लेकर हर चीज़ सब में अलग-अलग है निराली है क्या अपने कभी भी शांति से बैठकर ये सोचा है की हमारे अंदर क्या चीज़ ऐसी है जो हमको दूसरों से अलग

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इस तकनीकि के युग में आजकल के युवा इतने आत्मकेंद्रित हो गये है की उन्हें समाज या अपने आसपास के लोगों से मानो कोई सरोकार ही नही रह गया है| इसलिए आज घर के बुजुर्गों को अपने युवा हो रहे किशोरों से ये कहते सुनते है कि समाज में उठा बैठा करो, लोगों से मिला जुला करो, लोगों के यहाँ आया जाया करो थोड़े सोशल (सा

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आतंकवाद के खिलाफ नई दिल्ली में भारत ,रूस और चीन के विदेश मंत्रियों के १५वें सम्मलेन में तीनों देशों ने इसके खात्मे का ऐलान किया है .साथ ही टेरर फंडिंग रोकने और आतंकी

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''औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाजार दिया .'' कैसी विडम्बना है जन्म देने वाली की ,जन्म देने का सम्मान तो मिलना दूर की बात है ,अपने प्यार के बदले में प्यार भी नहीं मिलता ,मिलती है क्या एक औलाद जो केवल मर्द की हवस को शांत करने का एक जरिया म

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पद्मावती आजकल सुर्ख़ियों में हैं .हों भी क्यूँ न नारी शक्ति की जो मिसाल पद्मावती ने पेश की वह अनूठी है और ऐसी मिसाल ही होती हैं जो अनुकरणीय बन जाती हैं यही कारण है कि आज राजस्थान उनके सम्मान को लेकर भंसाली की सोच से ,भंसाली की फिल्म से लड़ रहा है और साफ तौर पर दिखाई दे रहा है कि भंस

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एकसमय ऐसा भी आया था जब विश्व और ब्रह्मांड सुंदरी बनना तो भारत की सुंदरियों के लिएबिल्कुल वैसा हो गया था जैसा एलियंस का दुनियां जीतने के लिए हमेशा अमेरिका पर हीहमला करना। 21 मई 1994कोजो सिलसिला सुष्मिता सेन के साथ शुरू हुआ तो एक के बाद एक खिताबों की ऐसी लाइन लगीकि सट्ट

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उत्तर प्रदेश में नगरपालिका चुनाव कार्यक्रम आरम्भ हो चुका है .चुनाव आचार संहिता अधिसूचना जारी होते ही लागू हो चुकी है .सरकारी घोषणाओं पर विराम लग चुका है ,सरकारी बंदरबाट फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में बंद हो चुकी है किन्तु भारत के अन्य राज्यों की तरह यह राज्य भी संप्रभु नह

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अभी लगभग १ वर्ष पूर्व हमारे क्षेत्र के एक व्यक्ति का देहांत हो गया .मृतक सरकारी कर्मचारी था और मरते वक्त उसकी नौकरी की अवधि शेष थी इसलिए मृतक आश्रित का प्रश्न उठा .यूँ तो ,निश्चित रूप से उसकी पत्नी आश्रित की अनुकम्पा पाने की हक़दार

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पति द्वारा क्रूरता से तो सभी वाकिफ हैं और उसके परिणाम में पति को सजा ही सजा मिलती है किन्तु आनंद में तो पत्नी है जो क्रूरता भी करती है तो भी सजा की भागी नहीं होती उसकी सजा मात्र इतनी कि उसके पति को उससे तलाक मिल सकता है किन्तु नारी-पुरुष समानता के इस युग में पारिवारिक संबंधों के मामले में पुरुष

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अब इसको आदत कह लें या जन्मजात स्वभाव, हम भारतीय बड़े ही स्वार्थ रहित जीव होते हैं जो अपना छोड़ हमेशा दूसरों के बारे में सोचते रहते हैं। कॉलेज की पढ़ाई खत्म होने से पहले पूछना शुरू कर देते हैं कि कही नौकरी लगी या नही? नौकरी लगते ही पूछना शुरू की और शादी कब कर रहे हो? किसी तरह शादी हुई तो फिर सवाल आता है

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तर्जे-बयां, यानि किसी चीज के बारे में कहने-सुनाने का तरीका... इस तर्जे-बयां का हमारी जिंदगी में और उसके खुशनुमेंपन में बेहद संजीदा रोल है... हम हालांकि आज की तेज जिंदगी में इस तर्जे-बयां की खूबसूरती की खुशबू से लगातार महरूम होते जा रहे हैं... चलिए, थोड़ी बातचीत इसी तर्

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6 साल पहलेमैंने मुंशी प्रेमचंद जी की लघुकथाओं का संग्रह ख़रीदा था। कथा संग्रह २ भागों में था परपढने का कभी समय ही नही मिला। करीब 2.5 वर्ष पहलेजब मेरी माँ का देहांत हुआ तब मन बड़ा ही व्यथित था। जीवन से मन उचट सा गया था। तब मैंने वो कथासंग्रह पढना शुरू किया पर 10-12 कथाओं के बाद पढने की हिम्मत ही न रही।

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बात बहुत छोटी सी है... पता नहीं, कहनी भी चाहिये या नहीं...!दरअसल, कहना-सुनना एक खास परिवेश एवं माहौल में ही अच्छा होता है। क्यूं...?इसलिए कि विद्वानों ने कहा है, ‘शब्द मूलतः सारे फसाद की जड़ है’...मगर, मामला तो यह भी है कि खामोशी भी कम फसाद नहीं करती...!चलिये, कह ही दे

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पलायन मुद्दे के शोर ने कैराना को एकाएक चर्चा में ला दिया ,सब ओर पलायन मुद्दे के कारण कैराना की बात करना एक रुचिकर विषय बन गया था ,कहीं चले जाओ जहाँ आपने कैराना से जुड़े होने की बात कही नहीं वहीं आपसे बातचीत करने को और सही हालात जानने को लोग एकजुट होने

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बहुत साल पहले, एक फिल्म त्रिशूल देख कर आए मेरे चचा बेहद बेहद खफा थे। बस शुरू हो गये – हद है, तहजीब गयी तेल बेचने, अब तो सिनेमा देखना ही छोड़ दूंगा।हिम्मत जुटा कर मैंने उनसे पूछा, किस बात से नाराज हैं?कहने लगे, सिनेमा में कभी भी गलत बात नही दिखानी चाहिए, सिनेमा हमारे समाज की तहजीब का हिस्सा है। समझाया

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फिल्मों का शौक शुरू से रहा हैं पर गोविंदा वाली पीढ़ी में जन्म लेने के कारण कभी भी मनमोहन देसाई के ज़माने की फिल्में देखना अच्छा नही लगा। गुरुदत्त, राज कपूर की फिल्में तो जैसे किसी और ही दुनियां की लगती थी। राजेन्द्र कुमार, दिलीप कुमार, राजेश खन्ना, जितेंद्र, विनोद खन्ना, शत्रुघन सिन्हा, धर्मेंद्र, विन

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1992 में एक फ़िल्म आई थी, नाम था यलगार। फ़िल्म के एक सीन में 53 वर्षीय पुलिस इंस्पेक्टर फ़िरोज़ खान, जो फ़िल्म के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एडिटर और ज़ाहिर हैं कि लीड हीरो भी थे, अपने 34 वर्षीय पिता कमिश्नर मुकेश खन्ना को फ़ोन पर कहते हैं कि जब आपको पता हैं कि दुनियां का सबसे खतरनाक कॉन्ट्रैक्ट किलर, कार्लोस,

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