बहुत साल पहले, एक फिल्म त्रिशूल देख कर आए मेरे चचा बेहद बेहद खफा थे। बस शुरू हो गये – हद है, तहजीब गयी तेल बेचने, अब तो सिनेमा देखना ही छोड़ दूंगा।
हिम्मत जुटा कर मैंने उनसे पूछा, किस बात से नाराज हैं?
कहने लगे, सिनेमा में कभी भी गलत बात नही दिखानी चाहिए, सिनेमा हमारे समाज की तहजीब का हिस्सा है। समझाया, देखो बेटा, ये जो अमिताभ की मां, वहीदा ने गाने में कहा, मेरी बर्बादी के दामिन अगर आबाद रहे, मैं तुझे दूध ना बख्सूंगी तुझे याद रहे, ये बेहद गलत है। कोई मां अपने बच्चे को वाय्लेन्स सिखाती है? कोई अपने बेटे से कहता है कि तू दुश्मनी की आग मैं जलता रह। कैसे मां होकर कोई कह सकती है अपने बेटे को कि वो रिवेंज के इमोशन्स को दुनिया के हर इमोशन और वैल्यू से ऊपर रक्खे। और दूध का वास्ता इसके लिए! हे भगवान, कैसे ऐसी फिल्में बनाते हैं! और एक बार कह गये तो कोई बात नहीं, पूरी फिल्म में बार बार इसको दुहराना, ओह!
मैं चुपचाप सरक लिया। छोटा था, कुछ समझ में नही आया।
ईश्वर की साजिश देखिए, अपने और परायों ने छोटी उमर से ही इतने दुख दिए मगर मां ने कभी वो नही कहा जो वहीदा जी ने बच्चन साहिब से कहा। हां, कबीर के दोहे याद कराए, बुरा जो देखन मैं चला मुझसा बुरा ना कोई!
... यही तहजीब है हमारी, ऐसी हैं माएं हमारी...।
वैसे, अब चचा जान फिल्में देख नही पाते, मैने कब का देखना छोड़ दिया है...!