बात बहुत छोटी सी है... पता नहीं, कहनी भी चाहिये या नहीं...!
दरअसल, कहना-सुनना एक खास परिवेश एवं माहौल में ही अच्छा होता है। क्यूं...?
इसलिए कि विद्वानों ने कहा है, ‘शब्द मूलतः सारे फसाद की जड़ है’...
मगर, मामला तो यह भी है कि खामोशी भी कम फसाद नहीं करती...!
चलिये, कह ही देता हूं... गर गैरमुनासिब सी लगे तो आपको पता ही है, मैं अपनी मूर्खता को लेकर परम आश्वस्त रहता हूं इसलिए, और किसी चीज में न सही, मुआफी मांग लेने में हमेशा ही नम्बर वन रहा हूं... विश्वास कीजिये...
तो मामला यह कि एक बार मैं अपने गांव गया। बात निकली तो यह मसला पता चला कि अभी भी गांव में चंद लोग बचे हैं जो सौ साल की उम्र के पार हैं। सोचा, उनसे मिलते हैं और कुछ हासिल करते हैं...
एक 102 साल के बुजुर्ग से मिला और उनसे यूं ही, अपनी सहज-सरल चित्त-वृत्ति में पूछा - ‘बाबा, जीवन का सच्चा सुख क्या है...?’
बुजुर्ग पहले तो मुस्कुराये, फिर जेब से अपनी सुपारी के महीन कतरन की पोटली निकाली और मेरे हाथ में देते हुए कहा - ‘सबसे सच्चा सुख अपनों, या जिन्हें आप अपना मानते हैं, के साथ मिलकर हंसी-खुशी चावल-दाल खाने में है...’
आपको मालूम ही है, मूर्खता तभी तक नुकसानदेह होती है जब तक हम उसको अपनी जेब में लेकर घूमते हैं। जैसे ही हम अपनी मर्खता सहज-सरल-सुगम भाव से, बिना शर्माये पाकिट से निकाल कर अपने सामने खड़ा कर देते हैं, वह कीमती उपलब्धि हो जाती है...
मैंने अपनी स्वभाविक मूर्खता प्रदर्शित करते हुए, दुविधा के भाव में पूछा - ‘आप आश्वस्त है कि जीवन की अच्छाई और उपलब्धि इतनी सहज और सुगम होती है...?’
बुजुर्ग ने अपनी सहज मुस्कुराहट में कहा - ‘बेटा, अच्छाई सहज-सरल और सुगम ही होती है मगर हम मनुष्यों को हमेशा लगते रहता है कि कोई भी चीज अगर आसानी व सहजता से उपलब्ध हो तो वह अच्छी हो ही नहीं सकती...!’
घर आकर मैं खुद से ही पूछता रहा - ‘क्या अच्छाई व उपलब्धि आसान ही है, कहीं हम इंसान ही तो जटिल और कठिन नहीं हो गये हैं...?’
एक साल बाद, गांव से खबर आई, वो बुजुर्ग नहीं रहे... हां, एक दिन सारे गांव वालों को उन्होंने बुलवाया और उनके साथ रात का साधारण दाल-चावल-सब्जी का खाना खाया और उसी रात, बेहद सुकून से उन्होंने आखिरी सांसें लीं...
... बात बहुत छोटी सी थी... पता नहीं, कहनी भी चाहिये थी या नहीं...!