!!! मेघ बरसो !!!
तप रही रवि की तपन से ये धरा क्या देखते,
टुट चुकी व रीढ़ खेतिहर भी डरा क्या देखते,
बन चुके इस सूर्य भक्षक से बचाने के लिए,
मेघ बरसो की कृषक को फिर जिलाने के लिए।
जो तलैया मर चुकी है गाँव की क्या देखते,
छोड़ मैना घर चुकी है गाँव की क्या देखते,
बूँद स्वाती की पपीहे को पिलाने के लिए,
मेघ बरसो की कृषक को फिर जिलाने के लिए।
पड़ चुकी सुनसान हैं अब गाँव की पगडंडियाँ,
अब धुआँ दिखता नहीं जलती नहीं अब कंडियाँ,
छोड़कर जो भी गए उनको बुलाने के लिए,
मेघ बरसो की कृषक को फिर जिलाने के लिए।
उठने नहीं दो अर्थियाँ माटी के लालों की,
बुझने नहीं दो बत्तियाँ माटी के लालों की,
जो कफ़न है फिर उसे पगड़ी बनाने के लिए,
मेघ बरसो की कृषक को फिर जिलाने के लिए।
धूल जलती लू जले ये छाँव मिलता है नहीं,
वो बगीचों से हरा अब गाँव मिलता है नहीं,
अब टहनियों पर पुनः फुनगी खिलाने के लिए,
मेघ बरसो की कृषक को फिर जिलाने के लिए।
हर बार के जैसे नहीं चेहरा दिखा के जाना तुम,
व सुनो इस बार सागर ही उठा ले आना तुम,
प्यास वर्षों की बड़ी इसको बुझाने के लिए,
मेघ बरसो की कृषक को फिर जिलाने के लिए।