नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ।
मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही-ही रुबाई हूँ॥
मुझे ऊँचाइयों का वह अकेलापन नहीं भाया;
लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया;
मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया।
बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर;
छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ॥
मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका;
कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका;
मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका।
मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई;
मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ॥
पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल;
नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल;
नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल।
पहन आई मैं हर गहना कि तेरे साथ ही रहना;
लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ।