प्राण हँस कर ले चला जब
चिर व्यथा का भार
उभर आये सिन्धु उर में
वीचियों के लेख,
गिरि कपोलों पर न सूखी
आँसुओं की रेख
धूलि का नभ से न रुक पाया कसक-व्यापार
शान्त दीपों में जगी नभ
की समाधि अनन्त,
बन गये प्रहरी, पहन
आलोक-तिमिर, दिगन्त!
किरण तारों पर हुए हिम-बिन्दु बन्दनवार।
स्वर्ण-शर से साध के
घन ने लिया उर बेध,
स्वप्न-विहगों को हुआ
यह क्षितिज मूक निषेध
क्षण चले करने क्षणों का पुलक से श्रृंगार!
शून्य के निश्वास ने दी
तूलिका सी फर,
ज्वार शत शत रंग के
फैले धरा को घेर!
वात अणु अणु में समा रचने लगी विस्तार!
अब न लौटाने कहो
अभिशाप की वह पीर,
बन चुकी स्पन्दन ह्रदय में
वह नयन में नीर!
अमरता उसमें मनाती है मरण-त्योहार!
छाँह में उसकी गये आ
शूल फूल समीप,
ज्वाल का मोती सँभाले
मोम की यह सीप
सृजन के शत दीप थामे प्रलय दीपाधार!