shabd-logo

रसवन्ती

14 फरवरी 2022

58 बार देखा गया 58

अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !

लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात

पलातक शिशु-सा मैं अनजान,

कर्म के कोलाहल से दूर

फिरा गाता फूलों के गान।

कोकिलों ने सिखलाया कभी

माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,

कण्ठ में आ बैठी अज्ञात

कभी बाड़व की दाहक आग।

पत्तियों फूलों की सुकुमार

गयीं हीरे-से दिल को चीर,

कभी कलिकाओं के मुख देख

अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।

तॄणों में कभी खोजता फिरा

विकल मानवता का कल्याण,

बैठ खण्डहर मे करता रहा

कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.

श्रवण कर चलदल-सा उर फटा

दलित देशों का हाहाकार,

देखकर सिरपर मारा हाथ

सभ्यता का जलता श्रृंगार.

शाप का अधिकारी यह विश्व

किरीचों का जिसको अभिमान

दोन-दलितों के क्रन्दन बीच

आज क्या डूब गए भगवान ?

तप्त मरु के सिंचन के हेतु

टटोला निज उर का रस-कोष

ओस के पीने से पर हाय

विश्व क्या पा सकता सन्तोष ?

बिन्दु या सिन्धु चाहिए उसे

हमें तो निज पर ही अधिकार

मुरलिका के रन्धों में लिये

चला निज प्राणों का उपहार

साधना की ज्वाला जब बढ़ी

गया वासव का आसन बोल

पूछने लगी मुझे पथ रोक

ठगिनि-माया जीवन का मोल

प्रिये रसवन्ती ! जग है कठिन

मनुज दुर्बल, मानव लाचार

परीक्षा को आया जब विश्व

गया जीवन की बाजी हार

द्वार कारा का बीचोबीच

इधर मैं बन्दी, तुम उस ओर

प्रिये ! तो भी ममता से हाय

खींचती क्यों मेरा पट-छोर ?

प्रणय उससे कैसा, यह जो कि

गया पहली ही बाजी हार ?

चीखती क्यों ले-लेकर नाम

अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ?

अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !

दुखों की सुख में स्मृतियाँ मधुर

सुखों की दुख में स्मृतियाँ शूल

विरह में किन्तु, मिलन की याद

नहीं मानव-मन सकता भूल

याद है वह पहला मधुमास

कोरकों में जब भरा पराग

शिराओं में जब तपने लगी

अर्द्ध-परिचित-सो मीठी आग

एक क्षण कोलाहल के बीच

पुलक की शीतलता में मौन

सोचने लगा ह्रदय में आज

हुआ नूपुर मुखरित यह कौन ?

खोल दृग देखा प्राची ओर

अलक्तक-चरणों का श्रृंगार

तुम्हारा नव उद्वेलित रूप

व्योम में उड़ता कुन्तल-भार

उठा मायाविनि ! अन्तर बीच

कल्पना का कल्लोलित ज्वार

लगा सद्यस्फुट पाटल सदृश

दृगों को मोहक यह संसार

लगी पृथ्वी आँखों को देवि !

सिक्त सरसीरुह-सी अम्लान

कूल पर खडी हुई-सी निकल

सिन्धु में करके सद्यस्नान

ग्रहण कर उस दिन ही सुकुमारि

तुम्हारे स्वर्णांचल का छोर

खोजने तृषितों का कल्याण

चला मैं अमृत-देश की ओर

गिरे थे जहाँ धर्म के बीज

उगा था जहाँ कभी भी ज्ञान

वहाँ की मिट्टी पर हम चले

प्रणति में झुकते एक समान

पन्थ में दूर्वा से सज तुम्हें

पिन्हाया गंगा का जलहार

शीश पर हिम-किरीट रख किया

देश की मिट्टी से श्रृंगार

विमूर्च्छित हुई तपोवन बीच

कराया निर्झर का जल पान

बोधि-तरु की छाया में बांह

हुई शुचि बनकर तब उपधान

धरा का जिस दिन सौरभ-कोष

खोलने लगी प्रथम बरसात

न जाने क्यों नालन्दा बीच

रहे रोते हम सारी रात

प्रेम-बिरवा आंगन में रोप

रहे थे हम जब हिल-मिल सींच

अचानक कुटिल नियति ने मुझे

लिया उस दिव्य लोक से खींच

अचानक हम दोनों के बीच

पड़ा आकर माया व्यवधान

रचा मेरे बन्धन के हेतु

भीषिकाओं ने दुर्ग महान

प्रकम्पित कर सारा ब्रह्माण्ड

किया प्राणों ने जब चीत्कार

बिहँसने लगा व्यंग्य से विश्व

अरी ओ रसवन्ती सुकुमार

अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !

बन्धनों से होकर भयभीत

किन्तु, क्या हार सका अनुराग ?

मानकर किस बन्धन का दर्प

छोड़ सकती ज्वाला को आग ?

पुष्प का सौरभ से सम्बन्ध

छुड़ा सकता कोई व्यवधान ?

कौन सत्ता वह जिसको देख

रश्मि को तज सकता दिनमान ?

आपदाएँ सौ बन्धन डाल

प्रेम का कर सकतीं अपमान ?

यहाँ शापित यक्षों के रोज

उड़ा करते अम्बर में गान

उठेगा व्याकुल दुर्दमनीय

क्षुब्ध होकर जब पारावार

रुद्ध होगा कैसे हे देवि !

धृष्ट शैलों से कण्ठ-द्वार ?

फोड़ दूंगा माया के दुर्ग

तोड़ दूंगा यह वज्र-कपाट;

व्योम में गाने को जिस रोज

बुलायेगा निर्बन्ध विराट

मिटा दूंगा ब्रह्मा का लेख

फिरा लूँगा खोया निज दांव

चलूँगा निज बल से नि:शंक

नियति के सिर पर देकर पाँव

तरंगित सुषमाओं पर खेल

करूंगा देवि ! तुम्हारा ध्यान

दुखों की जलधारा में भींग

तुम्हारा ही गाऊँगा गान

सजेगा जिस दिन उत्सव-हेतु

देश-माता का तोरण-द्वार

करेंगे हम ले मंगल-शंख

उदय का स्वागत-मंत्रोंच्चार

निखिल जन्मों में जिस पर देवि !

चढाए हमने तन, मन, प्राण

सुनेंगे हूति हेतु इस बार

एक दिन फिर उसका आह्वान

काल-नौका पर हो आरूढ़

चलेंगे जिस दिन प्रभु के देश

विश्व की सीमा पर सुकुमारि

करेंगे हम तुम संग प्रवेश

चकित होंगे सुनकर गन्धर्व

तुम्हारी दूरागत मृदु तान

श्रवण कर नूपुर की झंकार

भग्न होगा रम्भा का मान

'स्वर्ग से भी सुन्दर यह कौन ?'

करेंगे सुर जब चकित पुकार

कहूँगा मैं दिव से भी मधुर

विश्व की रसवन्ती सुकुमार

29
रचनाएँ
रसवन्ती
0.0
रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये।
1

सूखे विटप की सारिके

14 फरवरी 2022
0
0
0

(1) सूखे विटप की सारिके ! उजड़ी-कटीली डार से मैं देखता किस प्यार से पहना नवल पुष्पाभरण तृण, तरु, लता, वनराजि को हैं जो रहे विहसित वदन ऋतुराज मेरे द्वार से। मुझ में जलन है प्यास है, रस क

2

रसवन्ती

14 फरवरी 2022
0
0
0

अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ! लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात पलातक शिशु-सा मैं अनजान, कर्म के कोलाहल से दूर फिरा गाता फूलों के गान। कोकिलों ने सिखलाया कभी माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग, कण्ठ में आ बैठी अज

3

भ्रमरी

14 फरवरी 2022
0
0
0

पी मेरी भ्रमरी, वसन्त में अन्तर मधु जी-भर पी ले; कुछ तो कवि की व्यथा सफल हो, जलूँ निरन्तर, तू जी ले। चूस-चूस मकरन्द हृदय का संगिनि? तू मधु-चक्र सजा, और किसे इतिहास कहेंगे ये लोचन गीले-गीले?

4

दाह की कोयल

14 फरवरी 2022
0
0
0

दाह के आकाश में पर खोल, कौन तुम बोली पिकी के बोल? दर्द में भीगी हुई-सी तान, होश में आता हुआ-सा गान; याद आई जीस्त की बरसात, फिर गई दृग में उजेली रात; काँपता उजली कली का वृन्त, फिर गया दृग में

5

गीत-अगीत

14 फरवरी 2022
0
0
0

गीत, अगीत, कौन सुंदर है? गाकर गीत विरह की तटिनी वेगवती बहती जाती है, दिल हलका कर लेने को उपलों से कुछ कहती जाती है। तट पर एक गुलाब सोचता, "देते स्‍वर यदि मुझे विधाता, अपने पतझर के सपनों का

6

बालिका से वधू

14 फरवरी 2022
0
0
0

माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी, पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम-सी। लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी, यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी। पीली चीर, कोर में जिसक

7

प्रीति

14 फरवरी 2022
0
0
0

प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि! पल-भर चमक बिखर जाते जो मना कनक-गोधूलि-लगन सखि! प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि! प्रीति नील, गंभीर गगन सखि! चूम रहा जो विनत धरणि को निज सुख में नित मूक-मगन सखि! प्री

8

नारी

14 फरवरी 2022
0
0
0

खिली भू पर जब से तुम नारि, कल्पना-सी विधि की अम्लान, रहे फिर तब से अनु-अनु देवि! लुब्ध भिक्षुक-से मेरे गान। तिमिर में ज्योति-कली को देख सुविकसित, वृन्तहीन, अनमोल; हुआ व्याकुल सारा संसार, किया

9

अगुरु-धूम

14 फरवरी 2022
0
0
0

कल मुझे पूज कर चढ़ा गया अलि कौन अपरिचित हृदय-हार? मैं समझ न पाई गृढ़ भेद, भर गया अगुर का अन्धकार। श्रुति को इतना भर याद, भिक्षु गुनगुना रहा था मर्म-गान, "आ रहा दूर से मैं निराश, तुम दे पाओगी

10

अन्तर्वासिनी

14 फरवरी 2022
0
0
0

अधखिले पद्म पर मौन खड़ी तुम कौन प्राण के सर में री? भीगने नहीं देती पद की अरुणिमा सुनील लहर में री? तुम कौन प्राण के सर में ? शशिमुख पर दृष्टि लगाये लहरें उठ घूम रही हैं, भयवश न तुम्हें छू

11

पावस-गीत

14 फरवरी 2022
0
0
0

दूर देश के अतिथि व्योम में छाए घन काले सजनी, अंग-अंग पुलकित वसुधा के शीतल, हरियाले सजनी! भींग रहीं अलकें संध्या की, रिमझिम बरस रही जलधर, फूट रहे बुलबुले याकि मेरे दिल के छाले सजनी! किसका म

12

सावन में

14 फरवरी 2022
0
0
0

जेठ नहीं, यह जलन हृदय की, उठकर जरा देख तो ले; जगती में सावन आया है, मायाविन! सपने धो ले। जलना तो था बदा भाग्य में कविते! बारह मास तुझे; आज विश्व की हरियाली पी कुछ तो प्रिये, हरी हो ले। नन्

13

पुरुष-प्रिया

14 फरवरी 2022
0
0
0

मैं तरुण भानु-सा अरुण भूमि पर उतरा रुद्र-विषाण लिए, सिर पर ले वह्नि-किरीट दीप्ति का तेजवन्त धनु-बाण लिए। स्वागत में डोली भूमि, त्रस्त भूधर ने हाहाकार किया, वन की विशीर्ण अलकें झकोर झंझा ने जय

14

मरण

14 फरवरी 2022
0
0
0

लगी खेलने आग प्रकट हो थी विलीन जो तन में; मेरे ही मन के पाहुन आये मेरे आँगन में। बन्ध काट बोला यों धीरे मुक्ति-दूत जीवन का- ‘विहग, खोलकर पंख आज उड़ जा निर्बन्ध गगन में।’ पुण्य पर्व में आज

15

आश्वासन

14 फरवरी 2022
0
0
0

तृषित! धर धीर मरु में। कि जलती भूमि के उर में कहीं प्रच्छन्न जल हो। न रो यदि आज तरु में सुमन की गन्ध तीखी, स्यात, कल मधुपूर्ण फल हो। नए पल्लव सजीले, खिले थे जो वनश्री को मसृण परिधान देकर; ह

16

प्रभाती

14 फरवरी 2022
0
0
0

रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया। भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली; प्रेम से झुक-झुक प्रणति में पादपों की पंक्ति डोली; दूर प्राची की तटी से विश्व के तृण-तृण जगाता; फिर उदय की

17

कवि

14 फरवरी 2022
0
0
0

ऊषा भी युग से खड़ी लिए प्राची में सोने का पानी, सर में मृणाल-तूलिका, तटी में विस्तृत दूर्वा-पट धानी। खींचता चित्र पर कौन? छेड़ती राका की मुसकान किसे? विम्बित होते सुख-दुख, ऐसा अन्तर था मुकुर-

18

विजन में

14 फरवरी 2022
0
0
0

गिरि निर्वाक खड़ा निर्जन में, दरी हृदय निज खोल रही है, हिल-डुल एक लता की फुनगी इंगित में कुछ बोल रही है। सांझ हुई, मैं खड़ा दूब पर तटी-बीच कर देर रहा हूँ; गहन शान्ति के अंतराल में डूब-डूब कुछ

19

संध्या

14 फरवरी 2022
0
0
0

जीर्णवय अम्बर-कपालिक शीर्ण, वेपथुमान पी रहा आहत दिवस का रक्त मद्य-समान। शिथिल, मद-विह्वल, प्रकंपित-वपु, हृदय हतज्ञान, गिर गया मधुपात्र कर से, गिर गया दिनमान। खो गई चूकर जलद के जाल में मद-धार; न

20

अगेय की ओर

14 फरवरी 2022
0
0
0

गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन। सुनना श्रवण चाहते अब तक भेद हृदय जो जान चुका है; बुद्धि खोजती उन्हें जिन्हें जीवन निज को कर दान चुका है। खो जाने को प्राण विकल है चढ़ उन पद-प

21

संबल

14 फरवरी 2022
0
0
0

सोच रहा, कुछ गा न रहा मैं। निज सागर को थाह रहा हूँ, खोज गीत में राह रहा हूँ, पर, यह तो सब कुछ अपने हित, औरों को समझा न रहा मैं। वातायन शत खोल हृदय के, कुछ निर्वाक खड़ा विस्मय से, उठा द्वार-प

22

प्रतीक्षा

14 फरवरी 2022
0
0
0

अयि संगिनी सुनसान की! मन में मिलन की आस है, दृग में दरस की प्यास है, पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे उसका पता मिलता नहीं, झूठे बनी धरती बड़ी, झूठे बृहत आकश है; मिलती नहीं जग में कहीं प्रतिमा हृदय के

23

रहस्य

14 फरवरी 2022
0
0
0

तुम समझोगे बात हमारी? उडु-पुंजों के कुंज सघन में, भूल गया मैं पन्थ गगन में, जगे-जगे, आकुल पलकों में बीत गई कल रात हमारी। अस्तोदधि की अरुण लहर में, पूरब-ओर कनक-प्रान्तर में, रँग-सी रही पंख उड

24

शेष गान

14 फरवरी 2022
0
0
0

संगिनि, जी भर गा न सका मैं। गायन एक व्याज़ इस मन का, मूल ध्येय दर्शन जीवन का, रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं। विम्बित इन में रश्मि अरुण है, बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है, बँध

25

मानवती

14 फरवरी 2022
0
0
0

रूठ गई अबकी पावस के पहले मानवती मेरी की मैंने मनुहार बहुत , पर आँख नहीं उसने फेरी। वर्षा गई, शरत आया, जल घटा, पुलिन ऊपर आये, बसे बबूलों पर खगदल, फुनगी पर पीत कुसुम छाये। आज चाँदनी देख, न जानें, मै

26

कालिदास

14 फरवरी 2022
0
0
0

समय-सिन्धु में डूब चुके हैं मुकुट, हर्म्य विक्रम के, राजसिद्धि सोई, कब जानें, महागर्त में तम के। समय सर्वभुक लील चुका सब रूप अशोभन-शोभन, लहरों में जीवित है कवि, केवल गीतों का गुंजन। शिला-लेख मुद

27

गीत-शिशु

14 फरवरी 2022
0
0
0

आशीर्वचन कहो मंगलमयि, गायन चले हृदय से, दूर्वासन दो अवनि। किरण मृदु, उतरो नील निलय से। बड़े यत्न से जिन्हें छिपाया ये वे मुकुल हमारे, जो अब तक बच रहे किसी विध ध्वंसक इष्ट प्रलय से। ये अबोध कल्पक

28

कत्तिन का गीत

14 फरवरी 2022
0
0
0

कात रही सोने का गुन चाँदनी रूप-रस-बोरी; कात रही रुपहरे धाग दिनमणि की किरण किशोरी। घन का चरखा चला इन्द्र करते नव जीवन दान; तार-तार पर मैं काता करती इज्जत-सम्मान। हरी डार पर श्वेत फूल, यह तूल-वृक्

29

गीत

14 फरवरी 2022
0
0
0

उर की यमुना भर उमड़ चली, तू जल भरने को आ न सकी; मैं ने जो घाट रचा सरले! उस पर मंजीर बजा न सकी। दिशि-दिशि उँडेल विगलित कंचन, रँगती आई सन्ध्या का तन, कटि पर घट, कर में नील वसन; कर नमित नयन चुपच

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए