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पुरुष-प्रिया

14 फरवरी 2022

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मैं तरुण भानु-सा अरुण भूमि पर

उतरा रुद्र-विषाण लिए,

सिर पर ले वह्नि-किरीट दीप्ति का

तेजवन्त धनु-बाण लिए।

स्वागत में डोली भूमि, त्रस्त

भूधर ने हाहाकार किया,

वन की विशीर्ण अलकें झकोर

झंझा ने जयजयकार किया।

नाचती चतुर्दिक घूर्णि चली,

मैं जिस दिन चला विजय-पथ पर;

नीचे धरणी निर्वाक हुई,

सिहरा अशब्द ऊपर अम्बर।

मुक्ता ले सिन्धु शरण आया

मैंने जब किया सलिल-मन्थन,

मेरे इंगित पर उगल दिये

भू ने डर के फल, फूल, रतन।

दिग्विदिक सृष्टि के पर्ण-पर्ण पर

मैंने निज इतिहास लिखा,

दिग्विदिक लगी करने प्रदीप्त

मेरे पौरुष की अरुण शिखा।

मैं स्वर्ग-देश का जयी वीर,

भू पर छाया शासन मेरा;

हाँ, किया वहन नतभाल, दमित

मृगपति ने सिंहासन मेरा।

कर दलित चरण से अद्रि-भाल,

चीरते विपिन का मर्म सघन,

मैं विकट, धनुर्धर, जयी वीर,

था घूम रहा निर्भय रन-वन।

उर के मन्थन की दर्द-भरी

घड़ियों से थी पहचान नहीं,

सुमनों से हारे भीम शैल,

तबतक था इतना ज्ञान नहीं।

चूमे जिसको झुक अहंकार,

बह कली, स्यात, तब तक न खिली;

लज्जित हो अनल-किरीट, चाँदनी

तबतक थी ऐसी न मिली।

सहसा आई तुम मुझ अजेय को

हँसकर जय करनेवाली,

आधी मधु, आधी सुधा-सिक्त

चितवन का शर भरनेवाली।

मैं युवा सिंह से खेल रहा था

एक प्रात निर्झर-तट पर,

तुम उसी तीर पर माया-सी

लघु कनक-कुम्भ साजे कटि पर।

लघु कनक-कुम्भ कटि पर साजे,

दृग-बीच तरल अनुराग लिए;

चरणों में ईषत्‌ अरुण, क्षीण

जलधौत अलक्तक-राग लिए।

सध्यःस्नाता, मद-भरित, सिक्त

सरसीरुद्द की अम्लान कली,

अक्षता, सद्य, पाताल-जनित

मदिरा की निर्झरिणी पतली।

मैं चकित देखने लगा तुम्हें,

तुमने विस्मित मुझको देखा;

पल-भर हम पढ़ते रहे पूर्व-

युग का विस्मृत, घूमिल लेखा।

तुम नई किरण-सी लगी, मुझे

सहसा अभाव का ध्यान हुआ,

जिस दिन देखा यह हरित स्रोत,

अपने ऊसर का ज्ञान हुआ।

मैं रहा देखता निर्निमेष, तुम

खड़ी रही अपलक-चितवन,

नस-नस जॄम्भा संचरित हुई,

संस्रस्त शिथिल उर के बन्धन।

सहसा बोली, ‘प्रियतम’ अधीर,

श्लथ कटि से गिरा कलस तेरा,

गिर गए बाण, गिर गया धनुष,

सिहरा यौवन का रस मेरा।

‘प्रियतम’, ‘प्रियतम’, रसकूक मधुर

कब की श्रुति-सी, कुछ जानी-सी,

‘प्रियतम’, ‘प्रियतम’, रूपसी कौन

तुम युग-युग की पहचानी-सी?

उमड़ा व्याकुल यौवन विबन्ध,

उर की तन्त्री झनकार उठी;

सब ओर सृष्टि में निकट-दूर

‘प्रियतम’ की मधुर पुकार उठी।

तुम अर्ध चेतना में बोली

"मैं खोज थकी, तुम आ न सके,

लद गई कुसुम से डाल, किन्तु,

अबतक तुम हृदय लगा न सके।

"सीखा यह निर्दय खेल कहाँ?

तुम तो न कभी थे निठुर पिया।’

मैं चकित, भ्रमित कुछ कह न सका,

मुख से निकले दो वर्ण, ‘प्रिया’।

दो वर्ण ‘प्रिया’, यह मधुर नाम

रसना की प्रथम ऋचा निर्मल,

उल्लसित हृदय की प्रथम बीचि,

सुरसरि का विन्दु प्रथम उज्ज्वल।

नर की यह चकित पुकार ‘प्रिया’,

जब पहली दृष्टि पड़ी रानी,

जिस दिन मन की कल्पना उतर

भू पर हो गई खड़ी रानी।

विस्मय की चकित पुकार ‘प्रिया’,

जब तुम नीलिमा गगन की थी;

जब कर-स्पर्श से दूर अगुण

रस-प्रतिमा स्वप्न मगन की थी

जब पुरुष-नयन में वह्नि नहीं,

था विस्मय-जड़ित कुतुक केवल

जब तुम अचुम्बिता, दूर-ध्वनित

थी किसी सुरा का मद-कलकल।

विस्यम की चकित पुकार ‘प्रिया’,

जिस दिन तुम थी केवल नारी;

नर की ग्रीवा का हार नहीं भुज-

बँधी वल्लरी सुकुमारी।

दो वर्ण, ‘प्रिया’, यह नाद उषा

सुनती शिखरों पर प्रथम उतर;

दो वर्ण ‘प्रिया’, कुछ मन्द-मन्द

इस ध्वनि से ध्वनित गहन अम्बर।

दो वर्ण ‘प्रिया’, संध्या सुनती

झुक अतल मौन सागर-तल में;

सुन-सुनकर हृदय पिघल जाता

इसका गुंजन दृग के जल में।

सुन रही दिशाएँ मौन खड़ी,

सुन रही मग्न नभ की बाला;

सुन रहे चराचर, किन्तु, एक

सुनता न पुरुष कहनेवाला।

अकलंक प्राण का सम्बोधन

सुनते जो कर्ण अजान प्रिये,

तो पुरुष-प्रिया के बीच आज

मिलता न एक व्यवधान प्रिये।

व्यवधान वासना का कराल

जगते जो आग लगाती है;

जो तप्त शाप-विष फूँक सरल

नयनों को हिंस्र बनाती है।

उन आँखों का व्यवधान, ज्ञात

जिनको न रहस्यों का गोपन,

देखा कुछ कहीं कि कह आतीं

सब कुछ प्राणों के भवन-भवन।

उत्सुक नर का व्यवधान, शृंग

लख जिसे सूझता आरोहण;

जल-राशि देख संतरण और

वन सघन देखकर अन्वेषण।

अम्बर का देख वितान उड़ा,

‘यह नील-नील ऊपर क्या है?’

मिट्टी खोदी यह सोच, "गुप्त

इस वसुधा के भीतर क्या है?"

जिस दिवस अवारित प्रेम-सदन में

विस्मित, चकित पुरुष आया,

माणिक्य देख धीरता तजी,

मुक्ता-सुवर्ण पर ललचाया।

क्या ले, क्या छोड़े, रत्नराशि का

भेद नहीं लघु जान सका,

वह लिया कि जिसमें तृप्ति नहीं,

पाना था जो वह पा न सका।

पा सका न मन का द्वार, लुब्ध

भग चला कुसुम का तन लेकर,

ग्रीवा-विलसित मन्दार-हार का

दलन किया चुम्बन लेकर।

जीवन पर प्रसारित खिली चाँदनी

को पीने की चाह इसे,

शशि का रस सकल उँडेल बुझे

वह कठिन, चिरन्तन दाह इसे।

तरुणी-उर को कर चूर्ण खोजने

लगा सुरभि का कोष कहाँ?

प्रतिमा विदीर्ण कर ढूँढ़ रहा,

वरदान कहाँ? सन्तोष कहाँ?

खोजते मोह का उत्स पुरुष ने

सारी आयु वृथा खोई;

इससे न अधिक कुछ जान सका,

तुम-सा न कहीं सुन्दर कोई।

सब ओर तीव्र-गति घूम रहा

युग-युग से व्यग्र पुरुष चंचल,

तुम चिर-चंचल के बीच खड़ी

प्रतिमा-सी सस्मित, मौन, अचल।

सुन्दर थी तुम जब पुरुष चला,

सुन्दर अब भी जब कल्प गया;

जा रहा सकल श्रम व्यर्थ, नहीं

मिलता आगे कुछ ज्ञान नया।

जब-जब फिर आता पुरुष श्रान्त,

तब तुम कहती रसमग्न ‘पिया’

मिलती न उसे फिर बात नई,

मुख से कढ़ते दो वर्ण, ‘प्रिया’!

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रचनाएँ
रसवन्ती
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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये।
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सूखे विटप की सारिके

14 फरवरी 2022
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(1) सूखे विटप की सारिके ! उजड़ी-कटीली डार से मैं देखता किस प्यार से पहना नवल पुष्पाभरण तृण, तरु, लता, वनराजि को हैं जो रहे विहसित वदन ऋतुराज मेरे द्वार से। मुझ में जलन है प्यास है, रस क

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रसवन्ती

14 फरवरी 2022
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अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ! लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात पलातक शिशु-सा मैं अनजान, कर्म के कोलाहल से दूर फिरा गाता फूलों के गान। कोकिलों ने सिखलाया कभी माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग, कण्ठ में आ बैठी अज

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भ्रमरी

14 फरवरी 2022
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पी मेरी भ्रमरी, वसन्त में अन्तर मधु जी-भर पी ले; कुछ तो कवि की व्यथा सफल हो, जलूँ निरन्तर, तू जी ले। चूस-चूस मकरन्द हृदय का संगिनि? तू मधु-चक्र सजा, और किसे इतिहास कहेंगे ये लोचन गीले-गीले?

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दाह की कोयल

14 फरवरी 2022
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दाह के आकाश में पर खोल, कौन तुम बोली पिकी के बोल? दर्द में भीगी हुई-सी तान, होश में आता हुआ-सा गान; याद आई जीस्त की बरसात, फिर गई दृग में उजेली रात; काँपता उजली कली का वृन्त, फिर गया दृग में

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गीत-अगीत

14 फरवरी 2022
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गीत, अगीत, कौन सुंदर है? गाकर गीत विरह की तटिनी वेगवती बहती जाती है, दिल हलका कर लेने को उपलों से कुछ कहती जाती है। तट पर एक गुलाब सोचता, "देते स्‍वर यदि मुझे विधाता, अपने पतझर के सपनों का

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बालिका से वधू

14 फरवरी 2022
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माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी, पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम-सी। लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी, यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी। पीली चीर, कोर में जिसक

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प्रीति

14 फरवरी 2022
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प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि! पल-भर चमक बिखर जाते जो मना कनक-गोधूलि-लगन सखि! प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि! प्रीति नील, गंभीर गगन सखि! चूम रहा जो विनत धरणि को निज सुख में नित मूक-मगन सखि! प्री

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नारी

14 फरवरी 2022
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खिली भू पर जब से तुम नारि, कल्पना-सी विधि की अम्लान, रहे फिर तब से अनु-अनु देवि! लुब्ध भिक्षुक-से मेरे गान। तिमिर में ज्योति-कली को देख सुविकसित, वृन्तहीन, अनमोल; हुआ व्याकुल सारा संसार, किया

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अगुरु-धूम

14 फरवरी 2022
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कल मुझे पूज कर चढ़ा गया अलि कौन अपरिचित हृदय-हार? मैं समझ न पाई गृढ़ भेद, भर गया अगुर का अन्धकार। श्रुति को इतना भर याद, भिक्षु गुनगुना रहा था मर्म-गान, "आ रहा दूर से मैं निराश, तुम दे पाओगी

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अन्तर्वासिनी

14 फरवरी 2022
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अधखिले पद्म पर मौन खड़ी तुम कौन प्राण के सर में री? भीगने नहीं देती पद की अरुणिमा सुनील लहर में री? तुम कौन प्राण के सर में ? शशिमुख पर दृष्टि लगाये लहरें उठ घूम रही हैं, भयवश न तुम्हें छू

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पावस-गीत

14 फरवरी 2022
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दूर देश के अतिथि व्योम में छाए घन काले सजनी, अंग-अंग पुलकित वसुधा के शीतल, हरियाले सजनी! भींग रहीं अलकें संध्या की, रिमझिम बरस रही जलधर, फूट रहे बुलबुले याकि मेरे दिल के छाले सजनी! किसका म

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सावन में

14 फरवरी 2022
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जेठ नहीं, यह जलन हृदय की, उठकर जरा देख तो ले; जगती में सावन आया है, मायाविन! सपने धो ले। जलना तो था बदा भाग्य में कविते! बारह मास तुझे; आज विश्व की हरियाली पी कुछ तो प्रिये, हरी हो ले। नन्

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पुरुष-प्रिया

14 फरवरी 2022
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मैं तरुण भानु-सा अरुण भूमि पर उतरा रुद्र-विषाण लिए, सिर पर ले वह्नि-किरीट दीप्ति का तेजवन्त धनु-बाण लिए। स्वागत में डोली भूमि, त्रस्त भूधर ने हाहाकार किया, वन की विशीर्ण अलकें झकोर झंझा ने जय

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मरण

14 फरवरी 2022
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लगी खेलने आग प्रकट हो थी विलीन जो तन में; मेरे ही मन के पाहुन आये मेरे आँगन में। बन्ध काट बोला यों धीरे मुक्ति-दूत जीवन का- ‘विहग, खोलकर पंख आज उड़ जा निर्बन्ध गगन में।’ पुण्य पर्व में आज

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आश्वासन

14 फरवरी 2022
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तृषित! धर धीर मरु में। कि जलती भूमि के उर में कहीं प्रच्छन्न जल हो। न रो यदि आज तरु में सुमन की गन्ध तीखी, स्यात, कल मधुपूर्ण फल हो। नए पल्लव सजीले, खिले थे जो वनश्री को मसृण परिधान देकर; ह

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प्रभाती

14 फरवरी 2022
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रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया। भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली; प्रेम से झुक-झुक प्रणति में पादपों की पंक्ति डोली; दूर प्राची की तटी से विश्व के तृण-तृण जगाता; फिर उदय की

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कवि

14 फरवरी 2022
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ऊषा भी युग से खड़ी लिए प्राची में सोने का पानी, सर में मृणाल-तूलिका, तटी में विस्तृत दूर्वा-पट धानी। खींचता चित्र पर कौन? छेड़ती राका की मुसकान किसे? विम्बित होते सुख-दुख, ऐसा अन्तर था मुकुर-

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विजन में

14 फरवरी 2022
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गिरि निर्वाक खड़ा निर्जन में, दरी हृदय निज खोल रही है, हिल-डुल एक लता की फुनगी इंगित में कुछ बोल रही है। सांझ हुई, मैं खड़ा दूब पर तटी-बीच कर देर रहा हूँ; गहन शान्ति के अंतराल में डूब-डूब कुछ

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संध्या

14 फरवरी 2022
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जीर्णवय अम्बर-कपालिक शीर्ण, वेपथुमान पी रहा आहत दिवस का रक्त मद्य-समान। शिथिल, मद-विह्वल, प्रकंपित-वपु, हृदय हतज्ञान, गिर गया मधुपात्र कर से, गिर गया दिनमान। खो गई चूकर जलद के जाल में मद-धार; न

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अगेय की ओर

14 फरवरी 2022
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गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन। सुनना श्रवण चाहते अब तक भेद हृदय जो जान चुका है; बुद्धि खोजती उन्हें जिन्हें जीवन निज को कर दान चुका है। खो जाने को प्राण विकल है चढ़ उन पद-प

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संबल

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सोच रहा, कुछ गा न रहा मैं। निज सागर को थाह रहा हूँ, खोज गीत में राह रहा हूँ, पर, यह तो सब कुछ अपने हित, औरों को समझा न रहा मैं। वातायन शत खोल हृदय के, कुछ निर्वाक खड़ा विस्मय से, उठा द्वार-प

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प्रतीक्षा

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अयि संगिनी सुनसान की! मन में मिलन की आस है, दृग में दरस की प्यास है, पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे उसका पता मिलता नहीं, झूठे बनी धरती बड़ी, झूठे बृहत आकश है; मिलती नहीं जग में कहीं प्रतिमा हृदय के

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रहस्य

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तुम समझोगे बात हमारी? उडु-पुंजों के कुंज सघन में, भूल गया मैं पन्थ गगन में, जगे-जगे, आकुल पलकों में बीत गई कल रात हमारी। अस्तोदधि की अरुण लहर में, पूरब-ओर कनक-प्रान्तर में, रँग-सी रही पंख उड

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शेष गान

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संगिनि, जी भर गा न सका मैं। गायन एक व्याज़ इस मन का, मूल ध्येय दर्शन जीवन का, रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं। विम्बित इन में रश्मि अरुण है, बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है, बँध

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मानवती

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रूठ गई अबकी पावस के पहले मानवती मेरी की मैंने मनुहार बहुत , पर आँख नहीं उसने फेरी। वर्षा गई, शरत आया, जल घटा, पुलिन ऊपर आये, बसे बबूलों पर खगदल, फुनगी पर पीत कुसुम छाये। आज चाँदनी देख, न जानें, मै

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कालिदास

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समय-सिन्धु में डूब चुके हैं मुकुट, हर्म्य विक्रम के, राजसिद्धि सोई, कब जानें, महागर्त में तम के। समय सर्वभुक लील चुका सब रूप अशोभन-शोभन, लहरों में जीवित है कवि, केवल गीतों का गुंजन। शिला-लेख मुद

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गीत-शिशु

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आशीर्वचन कहो मंगलमयि, गायन चले हृदय से, दूर्वासन दो अवनि। किरण मृदु, उतरो नील निलय से। बड़े यत्न से जिन्हें छिपाया ये वे मुकुल हमारे, जो अब तक बच रहे किसी विध ध्वंसक इष्ट प्रलय से। ये अबोध कल्पक

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कत्तिन का गीत

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कात रही सोने का गुन चाँदनी रूप-रस-बोरी; कात रही रुपहरे धाग दिनमणि की किरण किशोरी। घन का चरखा चला इन्द्र करते नव जीवन दान; तार-तार पर मैं काता करती इज्जत-सम्मान। हरी डार पर श्वेत फूल, यह तूल-वृक्

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गीत

14 फरवरी 2022
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उर की यमुना भर उमड़ चली, तू जल भरने को आ न सकी; मैं ने जो घाट रचा सरले! उस पर मंजीर बजा न सकी। दिशि-दिशि उँडेल विगलित कंचन, रँगती आई सन्ध्या का तन, कटि पर घट, कर में नील वसन; कर नमित नयन चुपच

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