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कवि

14 फरवरी 2022

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ऊषा भी युग से खड़ी लिए

प्राची में सोने का पानी,

सर में मृणाल-तूलिका, तटी

में विस्तृत दूर्वा-पट धानी।

खींचता चित्र पर कौन? छेड़ती

राका की मुसकान किसे?

विम्बित होते सुख-दुख, ऐसा

अन्तर था मुकुर-समान किसे?

दन्तुरित केतकी की छवि पर

था कौन मुग्ध होनेवाला?

रोती कोयल थी खोज रही

स्वर मिला संग रोनेवाला।

अलि की जड़ सुप्त शिराओं को

थी कली विकल उकसाने को,

आकुल थी मधु वेदना विश्व की

अमर गीत बन जाने को।

थी व्यथा किसे प्रिय? कौन मोल

करना आँखों के पानी का?

नयनों को था अज्ञात अर्थ

तब तक नयनों की वाणी का।

उर के क्षत का शीतल प्रलेप

कुसुमों का था मकरन्द नहीं;

विहगों के आँसू देख फूटते

थे मनुजों के छन्द नहीं।

मृगदृगी वन्य-कन्या कर पाई

थी मृगियों से प्यार नहीं,

हाँ, प्रकृति-पुरुष तब तक मिल

हो पाये थे एकाकार नहीं।

शैथिल्य देख कलियाँ रोईं,

अन्तर से सुरभित आह उठी;

ऊसर ने छोड़ी साँस, एक दिन

धर्णी विकल कराह उठी।

यों विधि-विधान को दुखी देख

वाणी का आनन म्लान हुआ;

उर को स्पन्दित करनेवाले

कवि के अभाव का ज्ञान हुआ।

आह टकराई सुर-तरु में,

पुष्प आ गिरा विश्व-मरु में।

कवि! पारिजात के छिन्न कुसुम

तुम स्वर्ग छोड़ भू पर आए,

उर-पद्म-कोष में छिपा दिव्य

नन्दनवन का सौरभ लाए।

जिस दिन तमसा-तट पर तुमने

दी फूँक बाँसुरी अनजाने,

शैलों की श्रुतियाँ खुलीं, लगे

नीड़ों में खग उठ-उठ गाने।

फूलों को वाणी मिली, चेतना

पा हरियाली डोल गई,

पुलकातिरेक में कली भ्रमर से

व्यथा हृदय की बोल गई।

प्राणों में कम्पन हुआ, विश्व की

सिहर उठी प्रत्येक शिरा;

तुम से कुछ कहने लगी स्वयं

तृण-तृण में हो साकार गिरा।

निर्झर मुख पर चढ़ गया रंग

सुनहरी उषा के पानी का;

उग गया चित्र हिम-विन्दु-पूर्ण

किसलय पर प्रणय-कहानी का।

अंकुरित हुआ नव प्रेम, कंटकित

काँप उठी युवती वसुधा;

रस-पूर्ण हुआ उर-कोष, दृगों में

छलक पड़ी सौन्दर्य-सुधा।

कवि! तुम अनंग बनकर आए

फूलों के मृदु शर-चाप लिये,

चिर-दुखी विश्व के लिए प्रेम का

एक और संताप लिए।

सीखी जगती ने जलन, प्रेम पर

जब से बलि होना सीखा;

फूलों ने बाहर हँसी, और

भीतर-भीतर रोना सीखा।

उच्छ्वासों से गल मोम हुई

ऊसर की पाषाणी कारा;

सींचने चली संसार तुम्हारे

उर की सुधा-मधुर धारा।

तुमने जो सुर में भरा

शिशिर-क्रंदन में भी आनंद मिला;

रसवती हुई वेदना, आँसूओं

में जग को मकरन्द मिला।

मेघों पर चढ़ कर प्रिया पास

प्रेमी की व्याकुल आह चली;

वन-वन दमयन्ती विकल खोजती

निर्मोही की राह चली।

कवि! स्वर्ग-दूत या चरम स्वप्न

विधि का तुमको सुकुमार कहें?

नन्दन-कानन का पुष्प, व्यथा-

जग का या राजकुमार कहें?

विधि ने भूतल पर स्वर्ग-लोक

रचने का दे सामान तुम्हें;

अपनी त्रुटि को पूरी करने का

दिया दिव्य वरदान तुम्हें।

सब कुछ देकर भी चिर-नवीन,

चिर-ज्वलित व्यथा का रोग दिया;

फूलों से रचकर गात, भाग्य

में लिख शूलों का भोग दिया

जीवन का रस-पीयूष नित्य

जग को करना है दान तुम्हें

हे नीलकंठ, संतोष करो,

था लिखा गरल का पान तुम्हें।

कितना जीवन रस पिला-पिला

पाली तुमने कविता प्यारी?

कवि! गिनो, घाव कितने बोलो,

उर-बीच उगे बारी-बारी?

सूने में रो-रो बहा चुके

जग का कितना उपहास कहो?

दुनिया कहती है गीत जिन्हें,

उन गीतों का इतिहास कहो।

दाएँ कर से जल को उछाल

तट पर बैठे क्यों मौन? अरे!

बाएँ कर से मुख ढाँक लिया,

चिन्ता जागी यह कौन? हरे!

किरणे लहरों से खेल रहीं,

मेरे कवि! आह, नयन खोलो;

क्यों सिसक-सिसक रो रहे? हाय

हे देवदूत, यह क्या बोलो?

"आँखों से पूछो, स्यात, आँसुओं

में गीतों का भेद मिले;

मुझको इतना भर ज्ञात, व्यथा

जब हरी हुई, सब वेद मिले।

"पाली मैंने जो आग, लगा

उसको युग का जादू-टोना;

फूटती नहीं, हाँ जला रही

चुपके उर का कोना-कोना।

आँखें जो कुछ हैं दे रही

उनका कहना भी पाप मुझे;

क्या से क्या होगा विश्व, यही

चिन्ता, विस्मय, सन्ताप मुझे।

"मुझको न याद, किस दिन मैंने

किस अमर व्यथा का पान किया;

दुनिया कहती है गीत, रुदन कर

मैंने साँज-विहान किया"

आँसू पर देता विश्व हृदय का

कोहिनूर उपहार नहीं;

रोओ कवि! दैवी व्यथा विश्व में

पा सकती उपचार नहीं।

रोओ, रोना वरदान यहाँ

प्राणों का आठों याम हुआ;

रोओ, धरणी का मथित हलाहल

पीकर ही नभ श्याम हुआ।

खारी लहरों पर स्यात, कहीं

आशा का तिरता कोक मिले;

रोओ कवि! आँसू-बीच, स्यात,

धरणी को नव आलोक मिले।

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रचनाएँ
रसवन्ती
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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये।
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सूखे विटप की सारिके

14 फरवरी 2022
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(1) सूखे विटप की सारिके ! उजड़ी-कटीली डार से मैं देखता किस प्यार से पहना नवल पुष्पाभरण तृण, तरु, लता, वनराजि को हैं जो रहे विहसित वदन ऋतुराज मेरे द्वार से। मुझ में जलन है प्यास है, रस क

2

रसवन्ती

14 फरवरी 2022
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अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ! लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात पलातक शिशु-सा मैं अनजान, कर्म के कोलाहल से दूर फिरा गाता फूलों के गान। कोकिलों ने सिखलाया कभी माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग, कण्ठ में आ बैठी अज

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भ्रमरी

14 फरवरी 2022
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पी मेरी भ्रमरी, वसन्त में अन्तर मधु जी-भर पी ले; कुछ तो कवि की व्यथा सफल हो, जलूँ निरन्तर, तू जी ले। चूस-चूस मकरन्द हृदय का संगिनि? तू मधु-चक्र सजा, और किसे इतिहास कहेंगे ये लोचन गीले-गीले?

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दाह की कोयल

14 फरवरी 2022
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दाह के आकाश में पर खोल, कौन तुम बोली पिकी के बोल? दर्द में भीगी हुई-सी तान, होश में आता हुआ-सा गान; याद आई जीस्त की बरसात, फिर गई दृग में उजेली रात; काँपता उजली कली का वृन्त, फिर गया दृग में

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गीत-अगीत

14 फरवरी 2022
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गीत, अगीत, कौन सुंदर है? गाकर गीत विरह की तटिनी वेगवती बहती जाती है, दिल हलका कर लेने को उपलों से कुछ कहती जाती है। तट पर एक गुलाब सोचता, "देते स्‍वर यदि मुझे विधाता, अपने पतझर के सपनों का

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बालिका से वधू

14 फरवरी 2022
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माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी, पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम-सी। लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी, यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी। पीली चीर, कोर में जिसक

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प्रीति

14 फरवरी 2022
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प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि! पल-भर चमक बिखर जाते जो मना कनक-गोधूलि-लगन सखि! प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि! प्रीति नील, गंभीर गगन सखि! चूम रहा जो विनत धरणि को निज सुख में नित मूक-मगन सखि! प्री

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नारी

14 फरवरी 2022
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खिली भू पर जब से तुम नारि, कल्पना-सी विधि की अम्लान, रहे फिर तब से अनु-अनु देवि! लुब्ध भिक्षुक-से मेरे गान। तिमिर में ज्योति-कली को देख सुविकसित, वृन्तहीन, अनमोल; हुआ व्याकुल सारा संसार, किया

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अगुरु-धूम

14 फरवरी 2022
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कल मुझे पूज कर चढ़ा गया अलि कौन अपरिचित हृदय-हार? मैं समझ न पाई गृढ़ भेद, भर गया अगुर का अन्धकार। श्रुति को इतना भर याद, भिक्षु गुनगुना रहा था मर्म-गान, "आ रहा दूर से मैं निराश, तुम दे पाओगी

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अन्तर्वासिनी

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अधखिले पद्म पर मौन खड़ी तुम कौन प्राण के सर में री? भीगने नहीं देती पद की अरुणिमा सुनील लहर में री? तुम कौन प्राण के सर में ? शशिमुख पर दृष्टि लगाये लहरें उठ घूम रही हैं, भयवश न तुम्हें छू

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पावस-गीत

14 फरवरी 2022
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दूर देश के अतिथि व्योम में छाए घन काले सजनी, अंग-अंग पुलकित वसुधा के शीतल, हरियाले सजनी! भींग रहीं अलकें संध्या की, रिमझिम बरस रही जलधर, फूट रहे बुलबुले याकि मेरे दिल के छाले सजनी! किसका म

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सावन में

14 फरवरी 2022
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जेठ नहीं, यह जलन हृदय की, उठकर जरा देख तो ले; जगती में सावन आया है, मायाविन! सपने धो ले। जलना तो था बदा भाग्य में कविते! बारह मास तुझे; आज विश्व की हरियाली पी कुछ तो प्रिये, हरी हो ले। नन्

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पुरुष-प्रिया

14 फरवरी 2022
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मैं तरुण भानु-सा अरुण भूमि पर उतरा रुद्र-विषाण लिए, सिर पर ले वह्नि-किरीट दीप्ति का तेजवन्त धनु-बाण लिए। स्वागत में डोली भूमि, त्रस्त भूधर ने हाहाकार किया, वन की विशीर्ण अलकें झकोर झंझा ने जय

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मरण

14 फरवरी 2022
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लगी खेलने आग प्रकट हो थी विलीन जो तन में; मेरे ही मन के पाहुन आये मेरे आँगन में। बन्ध काट बोला यों धीरे मुक्ति-दूत जीवन का- ‘विहग, खोलकर पंख आज उड़ जा निर्बन्ध गगन में।’ पुण्य पर्व में आज

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आश्वासन

14 फरवरी 2022
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तृषित! धर धीर मरु में। कि जलती भूमि के उर में कहीं प्रच्छन्न जल हो। न रो यदि आज तरु में सुमन की गन्ध तीखी, स्यात, कल मधुपूर्ण फल हो। नए पल्लव सजीले, खिले थे जो वनश्री को मसृण परिधान देकर; ह

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प्रभाती

14 फरवरी 2022
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रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया। भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली; प्रेम से झुक-झुक प्रणति में पादपों की पंक्ति डोली; दूर प्राची की तटी से विश्व के तृण-तृण जगाता; फिर उदय की

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कवि

14 फरवरी 2022
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ऊषा भी युग से खड़ी लिए प्राची में सोने का पानी, सर में मृणाल-तूलिका, तटी में विस्तृत दूर्वा-पट धानी। खींचता चित्र पर कौन? छेड़ती राका की मुसकान किसे? विम्बित होते सुख-दुख, ऐसा अन्तर था मुकुर-

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विजन में

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गिरि निर्वाक खड़ा निर्जन में, दरी हृदय निज खोल रही है, हिल-डुल एक लता की फुनगी इंगित में कुछ बोल रही है। सांझ हुई, मैं खड़ा दूब पर तटी-बीच कर देर रहा हूँ; गहन शान्ति के अंतराल में डूब-डूब कुछ

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संध्या

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जीर्णवय अम्बर-कपालिक शीर्ण, वेपथुमान पी रहा आहत दिवस का रक्त मद्य-समान। शिथिल, मद-विह्वल, प्रकंपित-वपु, हृदय हतज्ञान, गिर गया मधुपात्र कर से, गिर गया दिनमान। खो गई चूकर जलद के जाल में मद-धार; न

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अगेय की ओर

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गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन। सुनना श्रवण चाहते अब तक भेद हृदय जो जान चुका है; बुद्धि खोजती उन्हें जिन्हें जीवन निज को कर दान चुका है। खो जाने को प्राण विकल है चढ़ उन पद-प

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संबल

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सोच रहा, कुछ गा न रहा मैं। निज सागर को थाह रहा हूँ, खोज गीत में राह रहा हूँ, पर, यह तो सब कुछ अपने हित, औरों को समझा न रहा मैं। वातायन शत खोल हृदय के, कुछ निर्वाक खड़ा विस्मय से, उठा द्वार-प

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प्रतीक्षा

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अयि संगिनी सुनसान की! मन में मिलन की आस है, दृग में दरस की प्यास है, पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे उसका पता मिलता नहीं, झूठे बनी धरती बड़ी, झूठे बृहत आकश है; मिलती नहीं जग में कहीं प्रतिमा हृदय के

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रहस्य

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तुम समझोगे बात हमारी? उडु-पुंजों के कुंज सघन में, भूल गया मैं पन्थ गगन में, जगे-जगे, आकुल पलकों में बीत गई कल रात हमारी। अस्तोदधि की अरुण लहर में, पूरब-ओर कनक-प्रान्तर में, रँग-सी रही पंख उड

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शेष गान

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संगिनि, जी भर गा न सका मैं। गायन एक व्याज़ इस मन का, मूल ध्येय दर्शन जीवन का, रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं। विम्बित इन में रश्मि अरुण है, बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है, बँध

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मानवती

14 फरवरी 2022
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रूठ गई अबकी पावस के पहले मानवती मेरी की मैंने मनुहार बहुत , पर आँख नहीं उसने फेरी। वर्षा गई, शरत आया, जल घटा, पुलिन ऊपर आये, बसे बबूलों पर खगदल, फुनगी पर पीत कुसुम छाये। आज चाँदनी देख, न जानें, मै

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कालिदास

14 फरवरी 2022
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समय-सिन्धु में डूब चुके हैं मुकुट, हर्म्य विक्रम के, राजसिद्धि सोई, कब जानें, महागर्त में तम के। समय सर्वभुक लील चुका सब रूप अशोभन-शोभन, लहरों में जीवित है कवि, केवल गीतों का गुंजन। शिला-लेख मुद

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गीत-शिशु

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आशीर्वचन कहो मंगलमयि, गायन चले हृदय से, दूर्वासन दो अवनि। किरण मृदु, उतरो नील निलय से। बड़े यत्न से जिन्हें छिपाया ये वे मुकुल हमारे, जो अब तक बच रहे किसी विध ध्वंसक इष्ट प्रलय से। ये अबोध कल्पक

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कत्तिन का गीत

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कात रही सोने का गुन चाँदनी रूप-रस-बोरी; कात रही रुपहरे धाग दिनमणि की किरण किशोरी। घन का चरखा चला इन्द्र करते नव जीवन दान; तार-तार पर मैं काता करती इज्जत-सम्मान। हरी डार पर श्वेत फूल, यह तूल-वृक्

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गीत

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उर की यमुना भर उमड़ चली, तू जल भरने को आ न सकी; मैं ने जो घाट रचा सरले! उस पर मंजीर बजा न सकी। दिशि-दिशि उँडेल विगलित कंचन, रँगती आई सन्ध्या का तन, कटि पर घट, कर में नील वसन; कर नमित नयन चुपच

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