सभ्यता का संबंध हमारे जीवन से होता है यथावत खान पान, रहन सहन, भाषा भाषी आदि संस्कृति का संबंध हमारी विचारधारा से होता है।
सभ्यता का अनुकरण किया जा सकता है किन्तु संस्कृति का नहीं। वस्तुतः सभ्यता और संस्कृति का संबंध आत्मा और शरीर जैसा होता है।। दोनो ही एक दूसरे का अनुसरण करते हैं अर्थात एक दूजे के पूरक होते हैं।
संस्कृति का आधार संस्कार होते हैं। अच्छे संस्कारों से ही सभ्यता हमारी सुरक्षित रहती है।
संस्कार हमें घर से ही मिलते हैं उसके बाद पाठशाला और विद्यालय में। माता को प्रथम गुरु ऐसे ही नहीं कहते हैं क्योंंकि मां ही हमारे संस्कारो की नींव डालती है जिससे हम सभ्य और सुसंस्कृत बनते हैं। यही हमारा आचरण बनता है।
यदि संस्कृति सही होगी तो सभ्यता भी शालीन और सौम्य होगी और विकृति तथा विसंगति से रहित होगी। सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में संस्कारो की भूमिका अहम होती है। हम सुसंस्कृत होंगे तभी सुसभ्य भी कहलाएंगे।
सभ्यताएं धीरे धीरे विकसित होती है और उसी के साथ साथ संस्कृति भी समृद्ध होती है। सभ्यता मूलतः जड़ता से बाहर निकालती है और संस्कृति सभ्यता का पथ प्रदर्शन करती है।
संस्कृति का सहिष्णु होना आवश्यक है जो सभ्यता के विकास के लिए जरूरी है। दूसरी संस्कृति को अपनाने में कोई बुराई नहीं है इससे मेलजोल बढ़ता है और सांस्कृतिक उन्नयन होता है।
संस्कृति ने जो रास्ते दिखाए उसी से सभ्यता आगे बढ़ती है। संस्कृति हमारी विरासत है और सभ्यता पूंजी। इसलिए जरूरी है कि इनको सहेज कर रखे ताकि जड़ता और स्थिरता छू न सके। ये निरंतर प्रयत्नशील रहे और अपनी विशिष्टताओं के माध्यम से सशक्त बने।अभाव ग्रस्त व्यक्ति भी सुसंस्कृत हो सकता है। सभ्यता व्यक्ति को भोगविलास से ग्रसित बनाती है किन्तु संस्कृति उसे संयम सिखाती है। सभ्यता अपने लिए जीना तो संस्कृति दूसरों के लिए जीना सिखाती है।