कर्मयोग वस्तुत: निजी स्वार्थ के लोकोपकार के लिए अपना कर्तव्य सर्वश्रेष्ठ तरीके से करना है। कर्मयोग अर्थात कर्म में लीन होना।
योगा कर्मो किशलयाम योग: कर्मसु कौशलम।
कर्मयोग के माध्यम से हम अपनी जीवात्मा से जुड़कर आत्मज्ञान को जाग्रत करते हैं। इस योग से हम ईश्वर को प्राप्त करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।
गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए ये योग सबसे उपयुक्त है। जीवन, समाज, देश, विश्व सब कर्म से जुड़े हैं। कर्मयोग सिखाता है कि कर्म करो और कर्मयोगी बनो। कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह कर्म करता रहता है।
कटुसत्य यह भी है कि दुःख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है। कोई भी व्यक्ति कर्म करना चाहता है जिसमें दूसरे मनुष्य की भलाई हो और विपरीत में यदि कृतघ्न निकलता है तो वह भलाई करने वाले के विरूद्ध कार्य करता है और भलाई करने वाला शख्स दुःखी होता है। इस तरह अच्छा कार्य भी दुःख देता है। बदले में भलाई करने वाला कुछ न चाहे तो वह दुःख के चंगुल में नहीं पड़ता है।
गीता में कहा है कि मन का समत्व भाव ही कर्म योग है जिसमें मनुष्य सुख दुःख , लाभ हानि, योग संयोग समानता से हमारे चित्त में ग्रहण करता है। संसार का कोई भी ब्रह्म से अलग नहीं। इसलिए हमारा कर्म सदा ईश्वर को समर्पित होता है। कर्मयोगी कर्म फल की इच्छा नहीं रखता अतः वह निष्काम कर्म करता रहता है और वह ईश्वर को प्राप्त होता है। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही वास्तविक रूप से कर्मयोगी है।
धन्यवाद
अनुपमा वर्मा ✍️✍️