गीत
तब मैं गीत लिखा करता हूँ |
जब मेरे अन्तर की ज्वाला ,
सीमाओं से बढ़ जाती है |
आंसू की अविरल बरखा भी ,
उसे न जब कम कर पाती है |
तब मैं लेखनी की वंशी पर
मेघ मल्हार छेड़ा करता हूँ |
जब भी कोई फाँस ह्रदय में
गहरी चुभन छोड़ जाती है |
मन के सरल सुकोमल तन से ,
सहन नहीं कुछ हो पाती है |
तब मैं शब्दों के मरहम से ,
मन के घाव भरा करता हूँ |
जब सुधियों की भीड़ द्वार पर ,
पागल हो दस्तक देती है |
कोमल मधुरिम सपनों वाली ,
नींद नयन से हर लेती है |
तब मैं भावुकता के सुरभित -
उपवन में विचरा करता हूँ |