विधा-- भजन
मात्रा भार--14
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💥💥वृहद की चाह 💥💥
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जब यह अणु वह पंकिल मन,
वृहद मन को चाहता है ।
तब जाकर कण-कण में वो,
साधक को दिख पाता है ।
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मंजिल की चाहत में तो,
हरदम ही उलझन आती ।
दृढ़ निश्चय ही मानव का,
मंजिल तक है ले जाती ।
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साधक उन कंटिल पथ पर,
आगे बढ़ता जाता है ।
काम,क्रोध,मद,मोह,लोभ,
हृद से हटता जाता है ।
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जब हमारे यह षड् रिपू,
मानव तन से हट जाते ।
तब चुपके से अष्ट पाश,
खुद ही मन से छट जाते।।
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तभी नर मुक्त पुरुष बन,
प्रभू में समा जाता है ।
देखते ही पंकिल मना,
वृहद में बदल जाता है ।।
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व्यंजना आनंद ✍