पहचानी वह पगध्वनि मेरी ,
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१.
नन्दन वन में उगने वाली ,
मेंहदी जिन चरणों की लाली ,
बनकर भूपर आई, आली
मैं उन तलवों से चिर परिचित
मैं उन तलवों का चिर ज्ञानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
२.
उषा ले अपनी अरुणाई,
ले कर-किरणों की चतुराई ,
जिनमें जावक रचने आई ,
मैं उन चरणों का चिर प्रेमी,
मैं उन चरणों का चिर ध्यानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
३.
उन मृदु चरणों का चुम्बन कर ,
ऊसर भी हो उठता उर्वर ,
तृण कलि कुसुमों से जाता भर ,
मरुस्थल मधुबन बन लहराते ,
पाषाण पिघल होते पानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
४.
उन चरणों की मंजुल ऊँगली
पर नख-नक्षत्रों की अवली
जीवन के पथ की ज्योति भली,
जिसका अवलम्बन के जग ने
सुख-सुषमा की नगरी जानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
५.
उन पद-पद्मों के प्रभ रजकण
का अंजित कर मंत्रित अंजन
खुलते कवि के चिर अंध-नयन,
तम से आकर उर से मिलती
स्वप्नों कि दुनिया की रानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
६.
उन सुंदर चरणों का अर्चन ,
करते आँसू से सिंधु-नयन!
पद-रेखों में उच्छ्वास पवन --
देखा करता अंकित अपनी
सौभाग्य सुरेखा कल्याणी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
७.
उन चल चरणों की कल छम-छम -
से ही निकला था नाद प्रथम ,
गति से मादक तालों का क्रम ,
निकली स्वर-लय की लहर जिसे
जग ने सुख की भाषा मानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
८.
हो शांत जगत के कोलाहल!
रुक जा,री!जीवन की हलचल!
मैं दूर पड़ा सुन लूँ दो पल,
संदेश नया जो लाई है
यह चाल किसी की मस्तानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
९.
किसके तमपूर्ण प्रहर भागे?
किसके चिर सोए दिन जागे?
सुख-स्वर्ग हुआ किसके आए?
होगी किसके कंपित कर से
इन शुभ चरणों की अगवानी?
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१०.
बढता जाता घुँघरू का रव ,
क्या यह भी हो सकता संभव?
यह जीवन का अनुभव अभिनव!
पदचाप शीघ्र , पद-राग तीव्र!
स्वागत को उठे,रे कवि मानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
११.
ध्वनि पास चली मेरे आती
सब अंग शिथिल पुलकित छाती,
लो, गिरती पलकें मदमाती ,
पग को परिरम्भण करने की ,
पर इन युग बाँहों ने ठानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१२.
रव गूँजा भू पर, अम्बर में ,
सर में, सरिता में ,सागर में ,
प्रत्येक श्वास में, प्रति श्वर में,
किस-किस का आश्रय ले फूलें,
मेरे हाथों की हैरानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१३.
ये ढूँढ रहे हैं ध्वनि का उद्गम
मंजीर-मुखर-युत पद निर्मम
है ठौर सभी जिनकी ध्वनि सम,
इनको पाने का यत्न वृथा,
श्रम करना केवल नादानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१४.
ये कर नभ-जल-थल में भटके,
आकर मेरे उर पर अटके,
जो पग-द्वय थे अंदर घट के,
ये ढूँढ रे उनको बाहर,
ये युग कर मेरे अज्ञानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१५.
उर के ही मधुर अभाव चरण
बन करते स्मृति पट पर नर्तन ,
मुखरित होता रहता बन-बन,
मैं ही इन चरणों में नूपुर,
नूपुर-ध्वनि मेरी ही वाणी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!