१.
मैं एक सुराही हाला की!
मैं एक सुराही मदिरा की!
मदिरालय हैं मन्दिर मेरे,
मदिरा पीनेवाले, चेरे,
पंडे-से मधु-विक्रेता को
जो निशि-दिन रहते हैं घेरे;
है देवदासियों-सी शोभा
मधुबालाओं की माला की ।
मैं एक सुराही हाला की!
२.
कोयल-बुलबुल की तान यहाँ,
घड़ियाली, और अजान यहाँ,
जिसको सुनकर खिंच आता है
पीनेवालों का ध्यान यहाँ,
तुलसी बिरवों-सी पावनता
है अंगूरों की लतिका की ।
मैं एक सुराही मदिरा की!
३.
सब आर्य प्रवर आ सकते हैं,
सब आर्येतर आ सकते हैं;
इस मानवता के मंदिर में
सब-नारी-नर आ सकते हैं;
केवल प्रवेश उसका निषिद्ध
जिसमें मधु-प्यास नहीं बाकी ।
मैं एक सुराही हाला की!
४.
सबका सम्मान समान यहाँ,
सबको समान वरदान यहाँ,
मैं शंकर-सी औढर दानी,
है मुक्ति बड़ी आसान यहाँ,
देरी है केवल फिरने की
सब पर मेरी चितवन बांकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
५.
इस मंदिर में पूजन मेरा,
अभिवादन-अभिनंदन मेरा,
निज भाग्य सराहा करते सब,
पाकर मादक दर्शन मेरा,
जिस तप से यह पदवी पाई
मैंने, कर लो उसकी झांकी!
मैं एक सुराही हाला की!
६.
मैं कुंभकार की चाक चढ़ी,
फिर मेरे तन पर बेलि कढ़ी,
तब गई चिता पा मैं रक्खी,
हर ओर अग्नि की ज्वाल बढ़ी,
जल चिता गई हो राख-राख,
मैं मिट्टी, किंतु, रही बाकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
७.
मैं मृत्यु विजय करके आई,
मैंने दैवी महिमा पाई,
मानव के नीरस जीवन में
मैं अमृत-सा मधुरस लाई,
इस गुण के कारण ही तो मैं
बन प्राण गई मधुशाला की।
मैं एक सुराही हाला की!
८.
मैं मधु से नहलार्ड जाती,
फिर प्यालों की माला पाती,
तब मेरे चारों ओर खड़ी
होकर मधुबालाएँ गातीं;
इस भाँति की गई है पूजा
जगती-तल पर किस प्रतिमा की ?
मैं एक सुराही मदिरा की!
९.
मैं मिट्टी की थी, लाल हुई,
मधु पीकर और निहाल हुई,
जब चली मुझे ले मधुबाला,
'छलछल' करके वाचाल हुई,
जिसको सुनकर पंडित-मुल्ले
भूले सब अपनी चालाकी।
मैं एक सुराही हाला की!
१०.
अब इनकी मिन्नत कौन करे?
इनके शापों से कौन डरे?
जब स्वर्ग लिए मैं फिरती हूं,
तब कौन क़यामत तक ठहरे?
जो प्राप्त अभी, उसके हित कल
की राह किसी ने कब ताकी?
मैं एक सुराही मदिरा की!
११.
मैं मधुबाला के कंधों पर
उपदेश यही देती चढ़कर-
'अपने जीवन के क्षण-क्षण को
लो मेरी मादकता से भर;
यह मिलना-जुलना क्षण भर का
फिर जाना सबको एकाकी।'
मैं एक सुराही हाला की!
१२.
लघु, मानव का कितना जीवन,
फिर क्यों उसपर इतना बंधन;
यदि मदिरा का ही अभिलाषी,
पी सकता कुछ गिनती के कण!
चुल्लू भर में गल सकता है
उसके तन का जामा ख़ाकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
१३.
मैं हूँ प्यालों मेँ जम जाती,
मधु के वितरण में रम जाती,
भरती अगणित मुख में मदिरा,
अपनी निधि, पर, कब कम पाती;
मैं घूम जिधर पड़ती, उठती
है गूँज उधर ध्वनि 'ला-ला' की
मैं एक सुराही हाला की!
१४.
औरों के हित मेरी हस्ती,
औरों के हित मेरी मस्ती,
मैं पीती सिंचित करने को
इन प्यासे प्यालों की बस्ती,
आनंद उठाते ये, अपयश
की भागी बनती मैं, साकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
१५.
उन्मत्त- बनाना खेल नहीं,
मधु से भी बुझती प्यास कहीं;
उर तापों से पिघला मेरा,
यह नहीं सुरा की धार वही!
उर के आसव से ही होती
है शांति हृदय की ज्वाला की
मैं एक सुराही हाला की!
१६. तुमने समझा मधुपान किया?
मैंने निज रक्त प्रदान किया!
उर क्रंदन करता था मेरा,
पर मुख से मैंने गान किया!
मैंने पीड़ा को रूप दिया,
जग समझा मैंने कविता की।
मैं एक सुराही मदिरा की!