उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
१.
जग ने ऊपर की आँखों से
देखा मुझको बस लाल-लाल,
कह डाला मुझको जल्दी से
द्रव माणिक या पिघला प्रवाल,
जिसको साक़ी के अधरों ने
चुम्बित करके स्वादिष्ट किया,
कुछ मनमौजी मजनूँ जिसको
ले-ले प्यालों में रहे ढाल;
मेरे बारे में है फैला
दुनिया में कितना भ्रम-संशय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
२.
वह भ्रांत महा जिसने समझा
मेरा घर था जलधर अथाह,
जिसकी हिलोर में देवों ने
पहचाना मेरा लघु प्रवाह;
अंशावतार वह था मेरा
मेरा तो सच्चा रूप और;
विश्वास अगर मुझ पर,मानो--
मेरा दो कण वह महोत्साह,
जो सुरासुरों ने उर में धर
मत डाला वारिधि वृहत ह्रदय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
३.
मेरी मादकता से ही तो
मानव सब सुख-दुःख सका झेल,
कर सकी मानवों की पृथ्वी
शशि-रवि सुदूर से हेल-मेल,
मेरी मस्ती से रहे नाच
ग्रह गण,करता है गगन गान,
वह महोन्माद मैं ही जिससे
यह सृष्टि-प्रलय का खेल-खेल,
दु:सह चिर जीवन सह सकता
वह चिर एकाकी लीलामय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
४.
अवतरित रूप में भी तो मैं
इतनी महान,इतनी विशाल,
मेरी नन्हीं दो बूंदों ने
रंग दिया उषा का चीर लाल;
संध्या की चर्चा क्या,वह तो
उसके दुकूल का एक छोर,
जिसकी छाया से ही रंजित
पटल-कुटुम्ब का मृदुल गाल;
कर नहीं मुझे सकता बन्दी
दर-दीवारों में मदिरालय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
५.
अवतीर्ण रूप में भी तो है
मेरा इतना सुरभित शरीर,
दो साँस बहा देती मेरी
जग-पतझड में मधुऋतु समीर,
जो पिक-प्राणों में कर प्रवेश
तनता नभ में स्वर का वितान,
लाता कमलों की महफिल में
नर्तन करने को भ्रमर-भीड़;
मधुबाला के पग-पायल क्या
पाएँगे मेरे मन पर जय!
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
६.
लवलेश लास लेकर मेरा
झरना झूमा करता इसी पर,
सर हिल्लोलित होता रह-रह,
सरि बढ़ती लहरा-लहराकर,
मेरी चंचलता की करता
रहता है सिंधु नक़ल असफल;
अज्ञानी को यह ज्ञात नहीं,
मैं भर सकती कितने सागर.
कर पाएँगे प्यासे मेरा
कितना इन प्यालो में संचय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
७.
है आज प्रवाहित में ऐसे,
जैसे कवि के ह्रदयोद्गार;
तुम रोक नहीं सकते मुझको,
कर नहीं सकोगे मुझे पार;
यह अपनी कागज़ की नावें
तट पर बाँधो आगे न बढ़ो,
ये तुम्हें डूबा देंगी गलकर
हे श्वेत-केश-धर कर्णधार;
बह सकता जो मेरी गति से
पा सकता वह मेरा आश्रय
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
८.
उद्दाम तरंगों से अपनी
मस्जिद,गिरजाघर ,देवालय
मैं तोड़ गिरा दूँगी पल में--
मानव के बंदीगृह निश्चय.
जो कूल-किनारे तट करते
संकुचित मनुज के जीवन को,
मैं काट सबों को डालूँगी.
किसका डर मुझको?मैं निर्भय.
मैं ढहा-बहा दूँगी क्षण में
पाखंडों के गुरू गढ़ दुर्जय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
९.
फिर मैं नभ गुम्बद के नीचे
नव-निर्मल द्वीप बनाऊँगी,
जिस पर हिलमिलकर बसने को
संपूर्ण जगत् को लाऊँगी;
उन्मुक्त वायुमंडल में अब
आदर्श बनेगी मधुशाला;
प्रिय प्रकृति-परी के हाथों से
ऐसा मधुपान कराऊँगी,
चिर जरा-जीर्ण मानव जीवन से
पाएगा नूतन यौवन वय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
१०.
रे वक्र भ्रुओं वाले योगी!
दिखला मत मुझको वह मरुथल,
जिसमे जाएगी खो जाएगी
मेरी द्रुत गति,मेरी ध्वनि कल.
है ठीक अगर तेरा कहना,
मैं और चलूँगी इठलाकर;
संदेहों में क्यूँ व्यर्थ पडूँ?
मेरा तो विश्वास अटल--
मैं जिस जड़ मरु में पहुंचूंगी
कर दूँगी उसको जीवन मय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!
११.
लघुतम गुरुतम से संयोजित --
यह जान मुझे जीवन प्यारा
परमाणु कँपा जब करता है
हिल उठता नभ मंडल सारा!
यदि एक वस्तु भी सदा रही,
तो सदा रहेगी वस्तु सभी,
त्रैलोक्य बिना जलहीन हुए
सकती न सूख कोई धारा;
सब सृष्टि नष्ट हो जाएगी,
हो जाएगा जब मेरा क्षय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय!