उस दिन अभागिनी संध्या की
अभिशप्त गोद में गिरे
देश के पिता,
राष्ट्र के कर्णधार,
जग के नर-सत्तम,
भारत के बापू महान
प्रर्थना-मंच पर इन्द्रप्रस्थ के अंचल में
गोली खाकर ।
कहने में जीभ सिहरती है,
मूर्च्छित हो जाती कलम,
हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा ।
तब भी बापू की छाती से
करुणा ही अन्तिम बार वेग से बह निकली
शोणित का बन कर स्रोत; स्यात्
मानव के निर्घिन चरम पाप को देख विकल
लज्जित होकर हो गई लाल
गंगाजल-सी परिपूत,
दूध-सी निर्मल-धवल अहिंसा ही ।
कूटस्थ पुरुष ने किया मृत्यु का सहज वरण,
बोले केवल "हे राम !" और आनंदलीन
आनन पर धारे शान्ति जोड़ कर-कंज गिरे
प्रार्थना-निरत, होकर अदृश्य के चरणों पर;
अन्तिम प्रार्थना, न होता जिसका अन्त कभी ।
काँपा सहसा ब्रह्माण्ड,
प्रकृति चीत्कार उठी,
रुक गई सृष्टि के उर की एक घड़ी धड़कन,
मानों, तीनों गोलियाँ गई हों
समा उसी की छाती में।
यह महा भयानक दृश्य !
देख रवि सहम उठा;
रह सका नहीं स्थिर कैसे भी मन को सँभाल,
अस्ताचल पर गिर गया विकल, मूर्च्छित होकर ।
डरता-डरता चन्द्रमा क्षितिज-पट से निकला,
पर, देख न वह भी सका जगत को आँख खोल;
घन में छिप चलता रहा रात-भर सहम-सहम।
पातक का भीमाकार एक पर्वत अपार
आ गिरा धमकता इन्द्रप्रस्थ की छाती पर,
मानों, भू पर कूदा हो कुम्भीपाक नरक !
कलमला उठा नीचे आकुल हो शेषनाग;
दिल्ली डोली, सारे जग में भूडोल हुआ।
आकाश काँपता पूछ उठा, "क्या हुआ अरे?"
सागर सहस्र मुख से बोला, "अम्बर ! यह क्या ?"
तब सिसक- ससक बोला समीर, “बापू न रहे;
गोली से डाला मार उन्हें उन्मत्त एक हत्यारे ने
जो हिन्दू था ।"
शोकाकुल हो रो उठा निखिल संसार,
स्वर्ग सन्तप्त हुआ;
कुम्हला कर के झुक गये कल्पतरु के पत्ते;
हरि के सिंहासन की मणि तेजोहीन हुई;
हो गये मूक परियों के सतत-मुखर नूपुर;
सुरपुर में छाया शोक, मौन हो गया वियत,
इन्द्रासन की चाँदनी अमा की रात हुई।
दिक्काल-बन्ध को भेद विकलता का प्लावन
यों बढ़ा कि मानों, ब्रह्मा की रचना विशाल
इस शोक-सिन्धु में ही हो जायेगी विलीन ।
सहसा अतीत के गह्वर में कुहराम मचा,
पूछने परस्पर लगीं विगत सदियाँ अधीर-
"तुमने देखी थी कभी क्रूरता क्या ऐसी ?
ऐसा पातक ? ऐसी हत्या ? ऐसा कलंक ?"
कोई कुछ बोली नहीं; मौन सोचती रहीं,
"हिन्दू भी करने लगे अगर ऐसा अनर्थ
तो शेष रहा जर्जर भू का भवितव्य कौन ?"
तब भारत का इतिहास व्यग्र होकर निकला
पूछते हुए, “अब तो छाती की बुझी आग ?
देखे थे अगणित पाप और
थी लिखी मलिनता भी उनकी,
पर, आज किया जो कुछ तुमने
मैं उसे देख थर्राता हूँ।
जो लिखूँ इसे तो राम-कृष्ण की
पोथी पर कालिख लगती;
धरती का उज्ज्वलतम चरित्र
पल में मलीन हो जाता है।
जो नहीं लिखूँ तो भी जघन्य
यह पाप छोड़ कर तुम्हें
और किस के सिर पर मँडरायेगा ?
“सोचो, तुमने क्या किया;
गोलियाँ किसकी छाती में मारी ?
घायल हो सृष्टि कराह रही,
उर-उर से रुधिर टपकता है ।
है चोट प्रकृति को लगी,
विश्व के उर में गहरा घाव लगा;
सुर-नर, दोनों, छटपटा रहे
हैं मर्म-बेधिनी पीड़ा से।
विस्मय है चारों ओर गहन,
सब सोच रहे व्याकुल -विषण्ण,
"यह क्या हो गया अचानक ही ?"
"यह क्या हो गया ?" पूछते हैं,
नभ के अबोध नक्षत्र, विकल,
"यह क्या हो गया ?" पूछती हैं,
अवसन्न दिशाएँ चकित, मौन;
"यह क्या हो गया ?" पूछती है
उठ-उठ पिछली प्रत्येक सदी;
"यह क्या हो गया ?" पूछता है
जग का समीपवर्ती भविष्य ।
अघटन घटना, क्या समाधान ?
काँटे भी जिसके पाँव-तले
कोमल होकर मुड़ जाते थे,
पत्थर को भी था ध्यान,
कहीं छाले न चरण में पड़ जायें !
छाया देते थे जलद और
श्रद्धा से जिसके आस-पास
झंझा भी हो जाती विनीत,
मलयानिल व्यजन डुलाता था।
वसुधा अपने वक्षस्थल पर
जिसको चलते-फिरते निहार
आनन्द-मन्न हो जाती थी,
कहती थी हो सुख में विभोर-
"यह अहोभाग्य!
मेरे वक्षस्थल पर सदेह
हैं घूम रहे भगवान स्वयं।"
जिस पुण्य-पुरुष के दर्शन से
जन-मन हो उठता था पवित्र,
देखा न जिन्होंने कभी
प्रेम से सुनते थे वे भी चरित्र ।
आते ही जिसका रुचिर ध्यान
मन में भर जाता था सुवास;
इस एक कल्पना से ही नर
उड़ने लगता था अनायास:-
"हम बापू के हैं समयुगीन,
एक ही समय, एक ही काल;
है किरण सूर्य की वही जो कि
बापू जी को नहलाती है;
हम साँस ले रहे वही वायु
जो छूकर उनको आती है।
है धन्य विधाता !
जिसने गाँधी-युगमें
हमको जन्म दिया।"
जिसकी विनम्रता के आगे
कुण्ठित हो जाती थी कराल
तलवार शर्म से सकुचाकर ।
अंगार बर्फ बन जाते थे,
लगते थे पद चाटने सिंह
घर के पालतू हरिण-जैसे ।
हाँ, यह भी हुआ कि एक बार
जाँघों पर आ बैठा भुजंग;
मुड़ इधर-उधर, कुछ सूंघ-साँघ
( जानें क्या खुशबू मिली !)
सरक कर धीरे-धीरे उतर गया;
यह सोच, न कोई जहर यहाँ,
फिर मैं ही क्यों यह पाप करूँ ?
निर्विष शरीर में दंश मार
क्यों नरक-कुण्ड में वृथा पड़ूँ ?
पर, तुम साँपों से भी कराल,
काँटों से भी काले निकले;
खाली कर दी पिस्तौल
उसी निर्गरल पुरुष की छाती में,
जो शीतल था चन्द्रमा-सदृश,
निष्कलुष कमल-सा कोमल था।
काँपा न हृदय, सहमे न प्राण,
सामने देखकर भी बापू को
हाय, बँधी मुट्ठी न हिली ;
या जब वे गिरने लगे हाय !
तुम लज्जा से मर भी न गये।
जग माँग रहा है समाधान,
"क्यों बापू पर गोलियाँ चलीं ?"
आने वाली पीढ़ियाँ यही पूछेंगी,
क्या उत्तर दूंगा?
क्या मुख ले आगे बढ़ूँ ?
सदी पर सदी गरजती आयेगी।
क्या होगा मेरा हाल
सही उत्तर न अगर वह पायेगी ?
लिखता हूँ होकर अतः, वज्र
ये वर्ण अमिट काले काले,
अधिकार किसी को नहीं,
सत्य के मुखड़े पर पर्दा डाले।
लिखता हूँ कुंभीपाक नरक के
पीव कुण्ड में कलम बोर,
बापू का हत्यारा पापी
था कोई हिन्दू ही कठोर।
कायर, नृशंस, कुत्सित, पामर,
दनुजों में भी अति घृणित दनुज;
मानव न जिसे पहचान सके
ऐसा जघन्य विकराल मनुज ।
सोचा, क्यों बिना विभेद किये
सब पर ठंढक यह बरसाती;
पापी ने डाली फाड़ चाँदनी
की करुणा-विह्वल छाती।
असहिष्णु नहीं सह सका, छाँह
सब को देता क्यों तरु उदार ;
निर्मम ने निधड़क चला दिया
पादप के धड़ पर ही कुठार ।
खल ने सोचा, निस्सीम जलद
क्यों धरती पर खुलकर बरसे ?
इससे अच्छा है पानी को
हम भी तरसें, जग भी तरसे।
वारिद के पावन तूल-पुञ्ज में
पामर ने दी फूँक आग;
जल गया जगत का दयामेघ,
जल गया सुधा-पूरित तड़ाग ।।
चाँदनी मरी, पादप सूखा,
जलकर वारिद हो गया शेष,
जग के समक्ष काले मुख पर
वध लिए खड़ा है हिन्द-देश ।
पापी ! यों ही तुम खड़े रहो
सदियों के सम्मुख झुका शीश,
भोगो, हत्या का कुटिल दंश;
भोगो, वध की विष-भरी टीस ।
निर्वाक, उपेक्षित खड़े रहो,
गरदन में वध का कफन डाल ;
बोलोगे मनोव्यथा किससे?
पूछेगा आकर कौन हाल ?
देखो, वे सूरज और चाँद
तुम से कतरा कर जाते हैं;
खग-मृग भी चलते चौंक,
तुम्हारी छाया से घबराते हैं।
जग में सबसे हिलती-मिलती
सदियों पर सदियाँ आयेंगी,
बस, एक तुम्हारे पास पहुँच
वे आँख बचा बढ़ जायेंगी।
जीवन-जुलूस से दूर खड़े
तरसोगे तुम बतियाने को,
हमदर्द किसी हमराही को
अन्तर की व्यथा सुनाने को।
हरि के हिय में दे शूल, वृद्ध
निर्दोष पिता का घात करे,
है कौन यहाँ जो उस जघन्य
पापी से भी दो बात करे ?
हाँ, एक दयामय था ऐसा
जो सब को गले लगाता था;
पातक पर दे पद-धूलि
पापियों को बढ़कर अपनाता था।
यह देह उसी की गिरी टूट,
पापी ! अब भी तो होश करो;
गति नहीं अन्य, गति नहीं अन्य,
इन चरणों को पकड़ो-पकड़ो!
रोओ मिट्टी से लिपट, गहो
अब भी ये चरण अभयकारी;
रोओ, भुज में भर वही वक्ष
जिस में तुमने गोली मारी।
रो-रोकर माँगो क्षमा,
त्राहि ! धरती न पाप से फट जाये,
आसेतु-हिमाचल विकल, व्यग्र
यह भूमि न कहीं उलट जाये।
'पातकी देश पर बरस पड़े
हरि का न कहीं कटु कोप-अनल,
धंस पड़ें न पर्वत-कूट कहीं,
उड़ जाय नहीं नदियों का जल ।
टल जायँ न पीड़ित मेघ कहीं
अन्यत्र तुम्हारा छोड़ व्योम ;
वध-ग्रसित तुम्हारे अम्बर में
उगना न छोड़ दें सूर्य-सौम ।
बहना न छोड़ दे पवन कहीं,
हो जाय न उडुओं को विरक्ति;
सूखें न शस्य, मारी न जाय
इन खेतों की उर्वरा-शक्ति ।
आकाश नाच कर गिरे नहीं,
हो सागर में पृथ्वी न लीना;
जल उठे न औचक किसी रोज
यह देश तुम्हारा भाग्यहीन ।
धरती विदीर्ण हो सकती है,
अम्बर धीरज खो सकता है;
बापू की हत्या हुई, किसी भी दिन
कुछ भी हो सकता है।
रो-रो कर माँगो क्षमा,
अश्रु से करो पितृ-शव काऽभिषेक,
अगुणी, कृतघ्न जन के अब भी
हैं बापू ही आधार एक ।
करुणामय, करुणाप्राण, निखिल
अशरण पतितों की एक शरण,
जग को देने को अमृत
मृत्यु का किया जिन्होंने स्वयं वरण ।
पहचानो, कौन चला जग से ?
पापी! अब भी कुछ होश करो।
मति नहीं अन्य, गति नहीं अन्य,
इन चरणों को पकड़ो-पकड़ो।