(१)
संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से,
मैं उन्हें पूजता आया हूँ बापू ! अब तक अंगारों से ।
अंगार, विभूषण यह उनका विद्युत पी कर जो आते हैं,
ऊँघती शिखाओं की लौ में चेतना नई भर जाते हैं ।
उनका किरीट, जो कुहा-भंग करते प्रचण्ड हुंकारों से,
रोशनी छिटकती है जग में जिनके शोणित की धारों से ।
झेलते वह्नि के वारों को जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर,
सहते हीं नहीं, दिया करते विष का प्रचंड विष से उत्तर ।
अंगार हार उनका, जिनकी सुन हाँक समय रुक जाता है,
आदेश जिधर का देते हैं, इतिहास उधर झुक जाता है ।
आते जो युग-युग में मिट्टी-का चमत्कार दिखलाने को,
ठोकने पीठ भूमण्डल की नभ-मंडल से टकराने को ।
अंगार हार उनका, जिनके आते ही कह उठता अम्बर,
‘हम स्ववश नहीं तबतक जब तक धरती पर जीवित है यह नर’ ।
अंगार हार उनका कि मृत्यु भी जिनकी आग उगलती है,
सदियों तक जिनकी सही हवा के वक्षस्थल पर जलती है ।
पर तू इन सबसे परे; देख तुझको अंगार लजाते हैं,
मेरे उद्वेलित-ज्वलित गीत सामने नहीं हो पाते हैं ।
(२)
बापू ! तू वह कुछ नहीं, जिसे ज्वालाएँ घेरे चलती हैं,
बापू ! तू वह कुछ नहीं, दिशाएँ जिसको देख दहलती हैं ।
तू सहज शान्ति का दूत, मनुज के सहज प्रेम का अधिकारी,
दृग में ऊंड़ेलकर सहज शील देखती तुझे दुनिया सारी ।
धरती की छाती से अजस्र चिर-संचित क्षीर उमड़ता है,
आँखों में भर कर सुधा तुझे यह अम्बर देखा करता है ।
कोई न भीत; कोई न त्रस्त; सब ओर प्रकृति है प्रेम-भरी,
निश्चिन्त जुगाली करती है छाया में पास खड़ी बकरी ।
(३)
भू पर तो आते वे भी जो जीता या हारा करते हैं,
मिट्टी में छिपे अनल को अपनी ओर पुकारा करते हैं ।
जीते लपटों के बीच मचा धरणी पर भीषण कोलाहल,
जाते-जाते दे जाते हैं भावी युग को निज तेज-अनल ।
पर, तू इन सब से भिन्न ज्योति, जेताजेता से महीयान,
कूटस्थ पुरुष ! तेरा आसन सब से ऊंचा, सब से महान ।
क्या हार -जीत खोजे कोई उस अद्भुत पुरुष अहन्ता की,
हो जिसकी संगर-भूमि बिछी गोदी में जगन्नियन्ता की !
संगर की अद्भुत भूमि, जहाँ पड़नेवाला प्रत्येक कदम-
है विजय; पराजय भी जिसकी होती न प्रार्थनाओं से कम ।
संगर की अद्भुत भूमि, नहीं कुछ दाह, न कोई कोलाहल;
चल रहा समर सबसे महान, पर, कहीं नहीं कुछ भी हलचल ।
(४)
देवों को जिसपर गर्व, योग्य उस शुचिता के वसुधा भी है,
नर में हैं जहाँ विकार अमित, अन्तर्हित कहीं सुधा भी है
।
सब ने देखे विद्वेष-गरल, तू ने देखा अमृतप्रवाह,
सब ने बड़वानल लिया, लिया तू ने करुणा-सागर अथाह ।
नर के भीतर की दुनिया में है कहीं अवस्थित देवालय,
सदियों में कभी-कभी कोई मर्मी पाता जिसका परिचय ।
देवालय सूना नहीं, देवता हैं, लेकिन, कुछ डरे हुए;
दानव के गर्जन-वर्जन से कुछ भीति-भाव में भरे हुए ।
मानवता का मर्मी सुजान ! आया तू भीति भगाने को,
अपदस्थ देवता को नर में फिर से अभिषिक्त कराने को ।
तू चला, लोग कुछ चौंक पड़े, 'तूफान उठा या आंधी है ?'
ईसा की बोली रूह, 'अरे ! यह तो बेचारा गाँधी है ।'
दुनिया ने चाहा प्रश्न करे, क्या कहिये इस दीवाने को ?
दो बूंद सुधा लेकर निकला है जग की आग बुझाने को ।
पर, तू न रुका ; सीधे अपने निर्दिष्ट पन्थ पर जा निकला,
पद-चिह्नों को देखते हुए पीछे-पीछे इतिहास चला ।
(५)
इतिहास चला, पर, नहीं मुग्ध होकर ज्वलन्त भाषाओं से,
वह चला स्वयं प्रेरित होकर अपनी अस्फुट आशाओं से ।
मानवता का इतिहास, युध्द के दावानल से जला हुआ,
मानवता का इतिहास, मनुज की प्रखर बुद्धि से छला हुआ ।
मानवता का इतिहास, मनुज की मेधा से घबराता-सा,
मानवता का इतिहास, जान पर विस्मय-चिह्न बनाता-सा,
मानवता का इतिहास, निराशा से टकराकर फिरा हुआ,
मानवता का इतिहास, आपदाओं में आ कर घिरा हुआ ।
मानवता का इतिहास विकल, हांफता हुआ, लोहू-लुहान;
दौड़ा तुझ से माँगता हुआ बापू ! दुखों से सपदि त्राण ।
(६)
पर, त्राण कहाँ ? किस्मत के लाखों भोग अभी तक बाकी हैं
धरती के तन में एक नहीं, सौ रोग अभी तक बाकी हैं ।
जल रही आग दुर्गन्ध लिये, छा रहा चतुर्दिक् विकट धूम,
विष के मतवाले कुटिल नाग निर्भय फण जोड़े रहे घूम ।
द्वेषों का भीषण तिमिर-व्यूह, पग-पग प्रहरी हैं अविश्वास,
है चमू सजी दानवता की, खिलखिला रहा है सर्वनाश ।
पर, हो अधीर मत मानवते ! पर हो, अधीर मत मेरे मन !
है जूझ रही इस व्यूह-बीच धरती की कोमल एक किरण ।
अब प्रश्न नहीं, यह एक किरण किस तरह द्वन्द्व से छूटेगी,
है प्रश्न, व्यूह पर इसी तरह बाकी किरणें कब टूटेंगी ।
बापू ने राह बना डाली, चलना चाहे, संसार चले,
डगमग होते हों पाँव अगर तो पकड़ प्रेम का तार चले ।
(७)
दानवता से मैं भी अधीर, नर पर मेरा भी सहज प्यार,
मैं भी चाहता पकड़ पाऊँ इस अमिट प्रेम का क्षीण तार ।
पर, हाय, प्रणय के तार ! छोर बस एक हमारे कर में है,
क्या अन्य छोर भी इसी तरह आबद्ध अपर अन्तर में है ?
उत्तर दे सकता कौन ? शान्त, मेरे शंकाकुल कुटिल हृदय ।
जब तक शंकाएँ शेष, नहीं दर्शन दे सकता तुझे प्रणय ।
चाहता प्रेम-रस पाना तो हिम्मत कर, बढ़कर बलि हो जा,
मत सोच, मिलेगा क्या पीछे, पहले तो आप स्वयं खो जा ।
है प्रेम-लोक का नियम, सहन कर जो बीते, कुछ बोल नहीं;
हैं पाँव खड़ग की धारा पर, चल बँधी चाल में, डोल नहीं ।
(८)
ली जांच प्रेम ने बहुत, मगर, बापू ! तू सदा खरा उतरा,
शूली पर से भी बार-जार तू नूतन ज्योति-भरा उतरा ।
प्रेमी की यह पहचान, परुषता को न जीभ पर लाते हैं,
दुनिया देती है जहर, किन्तु, वे सुधा छिड़कते जाते हैं ।
जानें, कितने अभिशाप मिले, कितना है पीना पडा गरल,
तब भी नयनों में ज्योति हरी, तब भी मुख पर मुसकान सरल ।
सामान्य मृत्तिका के पुतले, हम समझ नहीं कुछ पाते हैं,
तू ढो लेता किस भाँति पाप जो हम दिन-रात कमाते हैं ?
कितना विभेद ! हम भी मनुष्य, पर, तुच्छ स्वहित में सदा लीन,
पल-पल चंचल, व्याकुल, विषण्ण, लोहू के तापों के अधीन ।
पर, तू तापों से परे, कामना-जयी, एकरस, निर्विकार,
पृथ्वी को शीतल करता है, छाया-द्रुम-सी बाँहें पसार ।
(९)
इतिहास आँकता है गाथा, था भरत-भूमि का एक भाग,
संयोग, अकारण वहाँ कभी फुङ्कार उठे विकराल नाग ।
विष की ज्वाला से दह्यमान हो उठा व्यग्र सारा खगोल,
मतवाले नाग अशंक चले खोले जिह्वाएँ लोल-लोल ।
हंसों के नीड़ लगे जलने, हंसों की गिरने लगी लाश,
नर नहीं, नारियों से होली खेलने लगा खुल सर्वनाश ।
कामार्त्त दानवों के नीचे जगदम्बा कांप उठी थर-पर,
पर, साथ आज ही खड़ग नहीं, पर, साथ आज ही नहीं जहर ।
लपटों से लज्जा ढंको, कहाँ हो ! धधको, धधको घोर अनल !
कब तक ढंक पायेंगे इसको रमणी के दो छोटे करतल ?
नारी का शील गिरा खण्डित, कौमार्य गिरा लोहू-लुहान;
भगवान भानु जल उठे कुद्ध, चिंग्घार उठा यह आसमान ।
पर, हिली नहीं कुरु की परिषद्, हिले नहीं पाण्डव सभीत,
ललकार कौंध कर चली गयी, रह गये सोचते धर्म-नीति ।
बापू ! तू कलि का कृष्ण, विकल आया आँखों में नीर लिये,
थी लाज द्रोपदी की जाती केशव-सा दौड़ा चीर लिये ।
(१०)
इतिहास ! परख नूतन विधान, पन्ने समेट ले पुराचीन,
बापू ने कलम उठायी है लिखने को कुछ गाथा नवीन ।
थी पड़ी दृष्टि पहले भी क्या तेरी ऐसे नर नामी पर,
जो खुले पाँव नि:शंक घूमता हो साँपों की बाँबी पर ?
विस्मय है, जिस पर घोर लौह-पुरुषों का कोई बस न चला,
उस गढ़ में कूदा दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला ।
सारे संबल के तीन खण्ड, दो वसन, एक सूखी लकडी,
सारी सेनाओं का प्रतीक पीछे चलने वाली बकरी ।
दानव की आँखों में अशंक अपनी आँखें डालते हुए,
कुछ घृणा कलह से नहीं, प्रेम से ही उसको सालते हुए,
बापू आगे जा रहे, जहर की बाढ़ निघटती जाती है;
सहमी-सहमी-सी अनी तिमिर की पीछे हटती जाती है ।
(११)
वह सुनो, सत्य चिल्लाता है ले मेरा नाम अँधेरे में,
करुणा पुकारती है मुझको आबद्ध घृणा के घेरे में ।
श्रद्धा, मैत्री, विश्वास, प्रेम, बन्दी हैं मेरे सभी लोग,
धिक्कार मुझे जो सहूँ किसी के भय से मैं इनका वियोग ।
देवता चाहते हैं, जाऊँ मैं सत्वर उन्हें बचाने को,
या कारागृह में कूद स्वयं बँधने को या जल जाने को ।
मत साथ लगे कोई मैरे, एकाकी आज चलूँगा मैं,
जो आग उन्हें है भून रही उस में जा स्वयं जलूँगा मैं ।
एकाकी, हाँ एकाकी हूँ, डंसना चाहे तो व्याल डंसे,
करुणा को जिसने ग्रसा, बढ़े आगे, मुझको वह काल ग्रसे ।
मैत्री, विश्वास, अहिंसा को जिस महा दनुज ने खाया है,
है कहाँ छिपा ? ले ले, भोजन फिर वैसा ही कुछ आया है ।
बाँबी से कढ़ बाहर आवे, वह दनुज मुझे भी खाने को,
मैं हो आया तैयार प्रेम का अन्तिम मोल चुकाने को ।
भर गया पेट इतने से ही ? मुझको खाने की चाह नहीं ?
पर, याद रहे, मैं सहज छोड़ देने वाला हूँ राह नहीं ।
बाँबी-बाँबी पर घूम-घूम मैं तब तक अलख जगाऊँगा,
जबतक न हृदय की सीता को तुमसे वापस फिर पाऊँगा ।
या दे दूँगा मैं प्राण, खमंडल में हो चाहे जो उपाधि,
मानवता की जो कब्र वही गाँधी की भी होगी समाधि ।
(१२)
पाताल, तलातल, अतल, वितल को फोड़ महीनल पर सरसो,
अयि सुधे ! गगन से धार बाँध धरती पर द्रुत बरसो, बरसो ।
हो रहा बड़ा अतिकाल, मही को भरो, भरी रस-धारा से,
अपनी लहरों पर लो उछाल बापू को विष की कारा से ।
यह नहीं प्रतिज्ञा बापू की, विपदा है गहन-गभीर खड़ी,
बन हठी जहर के कीचड़ में धरती की है तकदीर खड़ी ।
बापू जो हारे, हारेगा जगतीतल का सौभाग्य-क्षेम,
बापू जो हारे, हारेंगे श्रद्धा, मैत्री, विश्वास, प्रेम
।
श्रद्धा, विश्वास, क्षमा, ममता, सत्यता, स्नेह, करुणा अथोर,
सबको सहेज कर बापू ने सागर में दी है नाव छोड़ ।
भंवरों में यों मत नचा इसे, मत इसे तरंगों पर उछाल;
चिर-सहज क्षुब्धता को समेट शीतल हो जा अम्बुधि विशाल ।
देवों की भी है साँस रुकी, सागर ! सागर ! हो सावधान !
है लदी हुई इस नौका पर मानवता की पूँजी महान,
यह डूब गयी तो डूबेंगे मानवता के सारे सिंगार,
यह पार लगी तो धरती की घायल किस्मत भी लगी पार ।
अन्धड़ के झोंके नाच रहे, है नाच रहा विप्लव कराल,
बाँसों उठ-उठ फण पटक रहा सागर का यह विक्षुब्ध व्याल ।
नाविक दृग मूंदे, हाथ जोड़ जा बैठा लोक अपर में है,
भगवान ! संभालो, नौका की पतवार तुम्हारे कर में है ।
( १३) बापू ! मैं तेरा समयुगीन; है बात बड़ी, पर कहने दे;
लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिन्धु में बहने दे ।
यह छोटी-सी भंगुर उमंग पर ! कितना अच्छा नाता है,
लगता है पवन वही मुझको जो छू कर तुझको आता है ।
सच है कि समय के स्मृति-पट पर रवि-सा होगा तू भासमान,
हम चमक-चमक बुझ जायेंगे क्षीणायु, क्षणिक उडु के समान ।
पर, कहीं राम-सा साथ-साथ तेरे पीछे चल पड़ा देश,
बापू ! मैं तेरा समयुगीन होकर हूँगा उपकृत विशेष ।
(१४)
तू कालोदधि का महास्तम्भ, आत्मा के नभ का तुंग केतु ।
बापू ! तू मर्त्य-अमर्त्य, स्वर्ग-पृथ्वी, भू-नभ का महासेतु
।
तेरा विराट यह रूप कल्पना-पट पर नहीं समाता है ।
जितना कुछ कहूँ, मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है ।
लज्जित मेरे अंगार; तिलक माला भी यदि ले आऊँ मैं ।
किस भांति उठूँ इतना ऊपर ? मस्तक कैसे छू पाँऊं मैं ।
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उँगलियाँ न छू सकतीं ललाट ।
वामन की पूजा किस प्रकार पहुँचे तुम तक मानव विराट ?
(महात्मा गाँधी की नोआखाली-यात्रा के समय विरचित
जनवरी १९४७ ई०)