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बापू

17 फरवरी 2022

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 (१) 

संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से, 

मैं उन्हें पूजता आया हूँ बापू ! अब तक अंगारों से । 

अंगार, विभूषण यह उनका विद्युत पी कर जो आते हैं, 

ऊँघती शिखाओं की लौ में चेतना नई भर जाते हैं । 

  

उनका किरीट, जो कुहा-भंग करते प्रचण्ड हुंकारों से, 

रोशनी छिटकती है जग में जिनके शोणित की धारों से । 

झेलते वह्नि के वारों को जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर, 

सहते हीं नहीं, दिया करते विष का प्रचंड विष से उत्तर । 

  

अंगार हार उनका, जिनकी सुन हाँक समय रुक जाता है, 

आदेश जिधर का देते हैं, इतिहास उधर झुक जाता है । 

आते जो युग-युग में मिट्टी-का चमत्कार दिखलाने को, 

ठोकने पीठ भूमण्डल की नभ-मंडल से टकराने को । 

  

अंगार हार उनका, जिनके आते ही कह उठता अम्बर, 

‘हम स्ववश नहीं तबतक जब तक धरती पर जीवित है यह नर’ । 

अंगार हार उनका कि मृत्यु भी जिनकी आग उगलती है, 

सदियों तक जिनकी सही हवा के वक्षस्थल पर जलती है । 

  

पर तू इन सबसे परे; देख तुझको अंगार लजाते हैं, 

मेरे उद्वेलित-ज्वलित गीत सामने नहीं हो पाते हैं । 

  

(२) 

बापू ! तू वह कुछ नहीं, जिसे ज्वालाएँ घेरे चलती हैं, 

बापू ! तू वह कुछ नहीं, दिशाएँ जिसको देख दहलती हैं । 

तू सहज शान्ति का दूत, मनुज के सहज प्रेम का अधिकारी, 

दृग में ऊंड़ेलकर सहज शील देखती तुझे दुनिया सारी । 

  

धरती की छाती से अजस्र चिर-संचित क्षीर उमड़ता है, 

आँखों में भर कर सुधा तुझे यह अम्बर देखा करता है । 

कोई न भीत; कोई न त्रस्त; सब ओर प्रकृति है प्रेम-भरी, 

निश्चिन्त जुगाली करती है छाया में पास खड़ी बकरी । 

  

(३) 

भू पर तो आते वे भी जो जीता या हारा करते हैं, 

मिट्टी में छिपे अनल को अपनी ओर पुकारा करते हैं । 

जीते लपटों के बीच मचा धरणी पर भीषण कोलाहल, 

जाते-जाते दे जाते हैं भावी युग को निज तेज-अनल । 

  

पर, तू इन सब से भिन्न ज्योति, जेताजेता से महीयान, 

कूटस्थ पुरुष ! तेरा आसन सब से ऊंचा, सब से महान । 

क्या हार -जीत खोजे कोई उस अद्भुत पुरुष अहन्ता की, 

हो जिसकी संगर-भूमि बिछी गोदी में जगन्नियन्ता की ! 

  

संगर की अद्भुत भूमि, जहाँ पड़नेवाला प्रत्येक कदम- 

है विजय; पराजय भी जिसकी होती न प्रार्थनाओं से कम । 

संगर की अद्भुत भूमि, नहीं कुछ दाह, न कोई कोलाहल; 

चल रहा समर सबसे महान, पर, कहीं नहीं कुछ भी हलचल । 

  

(४) 

देवों को जिसपर गर्व, योग्य उस शुचिता के वसुधा भी है, 

नर में हैं जहाँ विकार अमित, अन्तर्हित कहीं सुधा भी है
 

सब ने देखे विद्वेष-गरल, तू ने देखा अमृतप्रवाह, 

सब ने बड़वानल लिया, लिया तू ने करुणा-सागर अथाह । 

  

नर के भीतर की दुनिया में है कहीं अवस्थित देवालय, 

सदियों में कभी-कभी कोई मर्मी पाता जिसका परिचय । 

देवालय सूना नहीं, देवता हैं, लेकिन, कुछ डरे हुए; 

दानव के गर्जन-वर्जन से कुछ भीति-भाव में भरे हुए । 

  

मानवता का मर्मी सुजान ! आया तू भीति भगाने को, 

अपदस्थ देवता को नर में फिर से अभिषिक्त कराने को । 

तू चला, लोग कुछ चौंक पड़े, 'तूफान उठा या आंधी है ?' 

ईसा की बोली रूह, 'अरे ! यह तो बेचारा गाँधी है ।' 

  

दुनिया ने चाहा प्रश्न करे, क्या कहिये इस दीवाने को ? 

दो बूंद सुधा लेकर निकला है जग की आग बुझाने को । 

पर, तू न रुका ; सीधे अपने निर्दिष्ट पन्थ पर जा निकला, 

पद-चिह्नों को देखते हुए पीछे-पीछे इतिहास चला । 

  

(५) 

इतिहास चला, पर, नहीं मुग्ध होकर ज्वलन्त भाषाओं से, 

वह चला स्वयं प्रेरित होकर अपनी अस्फुट आशाओं से । 

मानवता का इतिहास, युध्द के दावानल से जला हुआ, 

मानवता का इतिहास, मनुज की प्रखर बुद्धि से छला हुआ । 

  

मानवता का इतिहास, मनुज की मेधा से घबराता-सा, 

मानवता का इतिहास, जान पर विस्मय-चिह्न बनाता-सा, 

मानवता का इतिहास, निराशा से टकराकर फिरा हुआ, 

मानवता का इतिहास, आपदाओं में आ कर घिरा हुआ । 

  

मानवता का इतिहास विकल, हांफता हुआ, लोहू-लुहान; 

दौड़ा तुझ से माँगता हुआ बापू ! दुखों से सपदि त्राण । 

  

(६) 

पर, त्राण कहाँ ? किस्मत के लाखों भोग अभी तक बाकी हैं 

धरती के तन में एक नहीं, सौ रोग अभी तक बाकी हैं । 

जल रही आग दुर्गन्ध लिये, छा रहा चतुर्दिक् विकट धूम, 

विष के मतवाले कुटिल नाग निर्भय फण जोड़े रहे घूम । 

  

द्वेषों का भीषण तिमिर-व्यूह, पग-पग प्रहरी हैं अविश्वास, 

है चमू सजी दानवता की, खिलखिला रहा है सर्वनाश । 

पर, हो अधीर मत मानवते ! पर हो, अधीर मत मेरे मन ! 

है जूझ रही इस व्यूह-बीच धरती की कोमल एक किरण । 

  

अब प्रश्न नहीं, यह एक किरण किस तरह द्वन्द्व से छूटेगी, 

है प्रश्न, व्यूह पर इसी तरह बाकी किरणें कब टूटेंगी । 

बापू ने राह बना डाली, चलना चाहे, संसार चले, 

डगमग होते हों पाँव अगर तो पकड़ प्रेम का तार चले । 

  

(७) 

दानवता से मैं भी अधीर, नर पर मेरा भी सहज प्यार, 

मैं भी चाहता पकड़ पाऊँ इस अमिट प्रेम का क्षीण तार । 

पर, हाय, प्रणय के तार ! छोर बस एक हमारे कर में है, 

क्या अन्य छोर भी इसी तरह आबद्ध अपर अन्तर में है ? 

  

उत्तर दे सकता कौन ? शान्त, मेरे शंकाकुल कुटिल हृदय । 

जब तक शंकाएँ शेष, नहीं दर्शन दे सकता तुझे प्रणय । 

चाहता प्रेम-रस पाना तो हिम्मत कर, बढ़कर बलि हो जा, 

मत सोच, मिलेगा क्या पीछे, पहले तो आप स्वयं खो जा । 

  

है प्रेम-लोक का नियम, सहन कर जो बीते, कुछ बोल नहीं; 

हैं पाँव खड़ग की धारा पर, चल बँधी चाल में, डोल नहीं । 

  

(८) 

ली जांच प्रेम ने बहुत, मगर, बापू ! तू सदा खरा उतरा, 

शूली पर से भी बार-जार तू नूतन ज्योति-भरा उतरा । 

प्रेमी की यह पहचान, परुषता को न जीभ पर लाते हैं, 

दुनिया देती है जहर, किन्तु, वे सुधा छिड़कते जाते हैं । 

  

जानें, कितने अभिशाप मिले, कितना है पीना पडा गरल, 

तब भी नयनों में ज्योति हरी, तब भी मुख पर मुसकान सरल । 

सामान्य मृत्तिका के पुतले, हम समझ नहीं कुछ पाते हैं, 

तू ढो लेता किस भाँति पाप जो हम दिन-रात कमाते हैं ? 

  

कितना विभेद ! हम भी मनुष्य, पर, तुच्छ स्वहित में सदा लीन, 

पल-पल चंचल, व्याकुल, विषण्ण, लोहू के तापों के अधीन । 

पर, तू तापों से परे, कामना-जयी, एकरस, निर्विकार, 

पृथ्वी को शीतल करता है, छाया-द्रुम-सी बाँहें पसार । 

  

(९) 

इतिहास आँकता है गाथा, था भरत-भूमि का एक भाग, 

संयोग, अकारण वहाँ कभी फुङ्कार उठे विकराल नाग । 

विष की ज्वाला से दह्यमान हो उठा व्यग्र सारा खगोल, 

मतवाले नाग अशंक चले खोले जिह्वाएँ लोल-लोल । 

  

हंसों के नीड़ लगे जलने, हंसों की गिरने लगी लाश, 

नर नहीं, नारियों से होली खेलने लगा खुल सर्वनाश । 

कामार्त्त दानवों के नीचे जगदम्बा कांप उठी थर-पर, 

पर, साथ आज ही खड़ग नहीं, पर, साथ आज ही नहीं जहर । 

  

लपटों से लज्जा ढंको, कहाँ हो ! धधको, धधको घोर अनल ! 

कब तक ढंक पायेंगे इसको रमणी के दो छोटे करतल ? 

नारी का शील गिरा खण्डित, कौमार्य गिरा लोहू-लुहान; 

भगवान भानु जल उठे कुद्ध, चिंग्घार उठा यह आसमान । 

  

पर, हिली नहीं कुरु की परिषद्, हिले नहीं पाण्डव सभीत, 

ललकार कौंध कर चली गयी, रह गये सोचते धर्म-नीति । 

बापू ! तू कलि का कृष्ण, विकल आया आँखों में नीर लिये, 

थी लाज द्रोपदी की जाती केशव-सा दौड़ा चीर लिये । 

(१०) 

इतिहास ! परख नूतन विधान, पन्ने समेट ले पुराचीन, 

बापू ने कलम उठायी है लिखने को कुछ गाथा नवीन । 

थी पड़ी दृष्टि पहले भी क्या तेरी ऐसे नर नामी पर, 

जो खुले पाँव नि:शंक घूमता हो साँपों की बाँबी पर ? 

  

विस्मय है, जिस पर घोर लौह-पुरुषों का कोई बस न चला, 

उस गढ़ में कूदा दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला । 

सारे संबल के तीन खण्ड, दो वसन, एक सूखी लकडी, 

सारी सेनाओं का प्रतीक पीछे चलने वाली बकरी । 

  

दानव की आँखों में अशंक अपनी आँखें डालते हुए, 

कुछ घृणा कलह से नहीं, प्रेम से ही उसको सालते हुए, 

बापू आगे जा रहे, जहर की बाढ़ निघटती जाती है; 

सहमी-सहमी-सी अनी तिमिर की पीछे हटती जाती है । 

  

(११) 

वह सुनो, सत्य चिल्लाता है ले मेरा नाम अँधेरे में, 

करुणा पुकारती है मुझको आबद्ध घृणा के घेरे में । 

श्रद्धा, मैत्री, विश्वास, प्रेम, बन्दी हैं मेरे सभी लोग, 

धिक्कार मुझे जो सहूँ किसी के भय से मैं इनका वियोग । 

  

देवता चाहते हैं, जाऊँ मैं सत्वर उन्हें बचाने को, 

या कारागृह में कूद स्वयं बँधने को या जल जाने को । 

मत साथ लगे कोई मैरे, एकाकी आज चलूँगा मैं, 

जो आग उन्हें है भून रही उस में जा स्वयं जलूँगा मैं । 

  

एकाकी, हाँ एकाकी हूँ, डंसना चाहे तो व्याल डंसे, 

करुणा को जिसने ग्रसा, बढ़े आगे, मुझको वह काल ग्रसे । 

मैत्री, विश्वास, अहिंसा को जिस महा दनुज ने खाया है, 

है कहाँ छिपा ? ले ले, भोजन फिर वैसा ही कुछ आया है । 

  

बाँबी से कढ़ बाहर आवे, वह दनुज मुझे भी खाने को, 

मैं हो आया तैयार प्रेम का अन्तिम मोल चुकाने को । 

भर गया पेट इतने से ही ? मुझको खाने की चाह नहीं ? 

पर, याद रहे, मैं सहज छोड़ देने वाला हूँ राह नहीं । 

  

बाँबी-बाँबी पर घूम-घूम मैं तब तक अलख जगाऊँगा, 

जबतक न हृदय की सीता को तुमसे वापस फिर पाऊँगा । 

या दे दूँगा मैं प्राण, खमंडल में हो चाहे जो उपाधि, 

मानवता की जो कब्र वही गाँधी की भी होगी समाधि । 

  

(१२) 

पाताल, तलातल, अतल, वितल को फोड़ महीनल पर सरसो, 

अयि सुधे ! गगन से धार बाँध धरती पर द्रुत बरसो, बरसो । 

हो रहा बड़ा अतिकाल, मही को भरो, भरी रस-धारा से, 

अपनी लहरों पर लो उछाल बापू को विष की कारा से । 

  

यह नहीं प्रतिज्ञा बापू की, विपदा है गहन-गभीर खड़ी, 

बन हठी जहर के कीचड़ में धरती की है तकदीर खड़ी । 

बापू जो हारे, हारेगा जगतीतल का सौभाग्य-क्षेम, 

बापू जो हारे, हारेंगे श्रद्धा, मैत्री, विश्वास, प्रेम
 

  

श्रद्धा, विश्वास, क्षमा, ममता, सत्यता, स्नेह, करुणा अथोर, 

सबको सहेज कर बापू ने सागर में दी है नाव छोड़ । 

भंवरों में यों मत नचा इसे, मत इसे तरंगों पर उछाल; 

चिर-सहज क्षुब्धता को समेट शीतल हो जा अम्बुधि विशाल । 

  

देवों की भी है साँस रुकी, सागर ! सागर ! हो सावधान ! 

है लदी हुई इस नौका पर मानवता की पूँजी महान, 

यह डूब गयी तो डूबेंगे मानवता के सारे सिंगार, 

यह पार लगी तो धरती की घायल किस्मत भी लगी पार । 

  

अन्धड़ के झोंके नाच रहे, है नाच रहा विप्लव कराल, 

बाँसों उठ-उठ फण पटक रहा सागर का यह विक्षुब्ध व्याल । 

नाविक दृग मूंदे, हाथ जोड़ जा बैठा लोक अपर में है, 

भगवान ! संभालो, नौका की पतवार तुम्हारे कर में है । 

  

( १३) बापू ! मैं तेरा समयुगीन; है बात बड़ी, पर कहने दे; 

लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिन्धु में बहने दे । 

यह छोटी-सी भंगुर उमंग पर ! कितना अच्छा नाता है, 

लगता है पवन वही मुझको जो छू कर तुझको आता है । 

  

सच है कि समय के स्मृति-पट पर रवि-सा होगा तू भासमान, 

हम चमक-चमक बुझ जायेंगे क्षीणायु, क्षणिक उडु के समान । 

पर, कहीं राम-सा साथ-साथ तेरे पीछे चल पड़ा देश, 

बापू ! मैं तेरा समयुगीन होकर हूँगा उपकृत विशेष । 

  

(१४) 

तू कालोदधि का महास्तम्भ, आत्मा के नभ का तुंग केतु । 

बापू ! तू मर्त्य-अमर्त्य, स्वर्ग-पृथ्वी, भू-नभ का महासेतु
 

तेरा विराट यह रूप कल्पना-पट पर नहीं समाता है । 

जितना कुछ कहूँ, मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है । 

  

लज्जित मेरे अंगार; तिलक माला भी यदि ले आऊँ मैं । 

किस भांति उठूँ इतना ऊपर ? मस्तक कैसे छू पाँऊं मैं । 

ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उँगलियाँ न छू सकतीं ललाट । 

वामन की पूजा किस प्रकार पहुँचे तुम तक मानव विराट ? 

  

(महात्मा गाँधी की नोआखाली-यात्रा के समय विरचित 

जनवरी १९४७ ई०)  

  

   

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रचनाएँ
बापू
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जिस समय बापू नोआख़ाली की यात्रा पर थे, उसी समय 'बापू' कविता की रचना हुई थी। बापू नामक कविता संग्रह के रचयिता भारत के प्रसिद्ध कवि और निबन्धकार रामधारी सिंह दिनकर हैं। यह छोटी-सी पुस्तक विराट् के चरणों में वामन का दिया हुआ क्षुद्र उपहार है। दिनकर जी की इस पुस्तक का प्रकाशन 'लोकभारती प्रकाशन' द्वारा किया गया था।
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चालीस कोटि के पिता चले,  चालीस कोटि के प्राण चले;  चालीस कोटि हतभागों की  आशा, भुजबल, अभिमान चले ।     यह रूह देश की चली, अरे,  माँ की आँखों का नूर चला;  दौड़ो, दौड़ो, तज हमें  हमारा बापू हमसे

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वज्रपात

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टूटा पर्वत-मा महावज्र  सब तरह हमारा ह्रास हुआ,  रोने दो, हम मर-मिटे हाय,  रोने दो सत्यानाश हुआ है ।     है तरी भंवर के बीच और  पतवार हाथ से छूट गई;  रोने दो हाय, अनाथ हुए,  रोने दो किस्मत फूट

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अघटन घटना, क्या समाधान ?

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उस दिन अभागिनी संध्या की  अभिशप्त गोद में गिरे  देश के पिता,  राष्ट्र के कर्णधार,  जग के नर-सत्तम,  भारत के बापू महान  प्रर्थना-मंच पर इन्द्रप्रस्थ के अंचल में  गोली खाकर ।     कहने में जीभ स

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