मंच को सादर निवेदित है कुछ
राधेश्यामी छंद पर प्रयास..........
16-16 पर यति, मात्रा भार- 32, पदांत गुरु, दो दो पंक्तियों में
तुकांत , लय- जिस भजन में राम का नाम न हो, उस भजन को गाना न चाहिए.......
“राधेश्यामी छंद” (लोक आधारित
छंद)
अपनापन यह अनमोल सखा, बेमोल चाह मिल जाती है।
कुछभी कहलें कुछभी सुनलें,
अति सहज छाह मिल जाती है।
नहीं कोई रिश्ता होता है,
न जान मान पहचान कोई।
फिर भी दो दिल मिल जाते हैं,
खिल जाती है मुस्कान नई॥-1
शायद यह मानव का मन है,
मानव मिलता है मानव से।
पशु पंक्षी भी तो मिल जाते,
उड़ते चलते रुक कानन से।
पानी से पानी मिल जाता, नदियां मिल जाती सागर से।
प्यासे को पानी मिल जाता,
कुंवना मिल जाता गागर से॥-2
अरमानों से अरमान मिले,
मिल जाते फूल बहारों से।
भौरा भी डाल पकड़ गाते, खिल जाती काली सहारों
से।
ये धरा बहुत ही न्यारी है, सबका सृंगार सजा देती।
सबके भारों को सह लेती,
सबको सुख भाव बता देती॥-3
सब मिलजुल रहते आएं हैं, सदियों से ही इक बागों में।
हर खान-पान स्वादिष्ट रहा, मिलना जुलना संग रागों में।
मतभेद रहा अपने पथ पर,
मनभेद न कभी उभर पाया।
रहनी करनी जिसकी जैसी,
सुख-दुख में नैना भर आया॥-4
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी