"गज़ल"
बना दिया मैंने जाने घरौंदे कितने
अब एक भी नहीं किसमे
गुलाब रक्खूंगा
मिटता गया बनकर हर रोज
सपना
किस आशियाने में सुर्ख
गुलाब रक्खूंगा।।
हटा लो अपनी रंगीन
फिजाओं को
किस बगीचे में यह कली
गुलाब रक्खूंगा।।
रंग भी बदल दिए है धने
गेसुओं ने
झुकी डालियाँ न फुले
गुलाब रक्खूंगा।।
रहने भी दो अब मिजाज की
पेशगी
पुराने गमले में कैसे
खिले गुलाब रक्खूंगा।।
वक्त भी नहीं करता
रुककर इंतजार
पतझड़ में न हैरत का
गुलाब रक्खूंगा।।
सजा लो अपने खिले चमन
में कहीं भी
इस बगिया में न काँटें
गुलाब रक्खूंगा।।
कई रंग खिलाएं छोटी सी
क्यारी में
हक की पांचिल न बेहक
गुलाब रक्खूंगा।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी