मंच को समर्पित एक लघु कथा/कहानी.......
"झबरी और मतेल्हु"
समय बीत जाता है यादें रह जाती हैं। आज उन्हीं यादों की फहरिस्त में से झबरी की याद आ गई, जो हर वक्त छोटकी काकी के आस-पास घूमा करती थी। कितना भी डाटों-मारों चिपकी रहती थी, काकी के पल्लू से। म्याऊं म्याऊं करते हुए सबकी झिड़क सहते हुए, घर की चहारदीवारी में सती हो जाती थी। बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेती मानों नई नवेली दुल्हन बनकर अधिकार सहित आई है ड्योढ़ी के अंदर। हाँ, कभी कभार काकी के साथ घूम फिर कर कैंडा छुड़ा आती थी। अजीब बिल्ली थी न कच्छ- भच्छ खाती थी न बिना नहाए कुछ अन्नपरासन ही करती थी, दुबली पतली पर तेज बहुत थी। मतेल्हु की भी हिम्मत नहीं थी कि घर के अंदर आ जाय और कुछ जुठार दें। दरवाजे पर ही बैठे रहते थे और पुंछ हिलाते रहते थे। छोटकी काकी का भी अजीब शौक था कुत्ता बिल्ली सब पाल के रखती थी और परेशान होती रहती थी। बैल-भैंस, गाय और आदमियों से फुरसत तो मिलती नहीं फिर भी अपने पहरेदारों के लिए ख़ुशी ख़ुशी सेवा कर उन्हें मेवा खिला ही देती थी। घर में झबरी और बहार मटेल्हु उनके पहरेदार थे। शामू काका उनकी इस आदत से बहुत खिन्न रहते थे पर बेबस थे पर निभाए जा रहे थे। हाँ एक बात तो थी क्या मजाल है उनके दरवाजे पर कोई बाहरी बिना आज्ञा के अंदर आ जाय, मटेलहू भाई कितनों के पेट में चौदह बरदहिया सुई लगवा चुके थे और अंदर झबरी के डर से कोई भी चूहा या बिरानी बिल्ली झपट्टा नहीं मार पाते थे। दूध दही सब कुछ सलामत ही था तो काकी अपने धुन में मस्त-स्वस्थ थीं।
ठंढी का महिना था हर दरवाजे पर अलाव जलाना दैनिक क्रिया में सामिल था काकी का अलाव भी खूब मशहूर था। अगल बगल के लोग देर रात तक अलाव तापते और कचहरी करते थे। बहुत सारी बातें, मजाक, मसकरी और ठहाकों की गूंज से ठंढी दुम दबा के दुबक जाती थी। लोग-बाग देर रात होने पर अपने-अपने रजाई में समा जाते थे और रात अपना दरवाजा बंद कर लेती थी। मजबूरी में मतेल्हु और कजरी अलाव की गर्मी में अपनी ठंढी बिता लेते थे। अचानक एक दिन मतेल्हु का भुकना और झबरी का गुर्राना, कूदना उछलना आदि सुनकर सब लोग सकते में आ गए। किसी अनहोनी की डर ने सबको दहला कर रख दिया, चोर और डाकू के भय से सब के सब हिल गए। ऐसे में दरवाजा खोलना खतरे से खाली न लगा। काकी ने भी बहुत आवाज दिया दोनों को चुप कराने के लिए पर उस रात दोनों अपने आन पर आ गए थे और अपने कर्म के आगे किसी की भी न सुनने की कसम खा लिए थे। हर लोग कैदी की तरह अपने अपने जगलों से आहट पाने के फ़िराक में भयभीत थे पर अँधेरे ने किसी को कोई सुराग न दिया। करीब एक घंटे बाद दोनों का चिल्लाना कूदना कुछ कम हुआ तो काकी ने हिम्मद दिखाकर दरवाजा खोला और लालटेन की रोशनी में जो दिखा उससे सब के सब हक्के बक्के हो गए। एक बहुत बड़ा गेंहुअन साँप जमीन पर अधमरा हो फन फुफकार रहा था और झबरी कूद कूद कर अपने पंजे से वार कर रही थी मतेल्हु का काम हो गया था उसके थुथनों पर खून के निशान और उसकी चुप्पी दोनों एक घनघोर युद्ध की गवाही दे रहें थे। कुछ देर बाद झबरी के वार से परास्त ज़हरीला साप जमीन सूंघने को विवश होकर निढ़ाल हो गया। फिर क्या सबकी लाठी खनकने लगी और उसका कचूमर निकलते देर न लगी। खैर दोनों जानवरों पर फुफकार का कुछ असर भी हुआ कारण दोनों बेसुध हो गए थे। काकी ने दोनों के मुंहो को पानी से साफ किया दुध पिलाया और रात भर जागती रही। सुबह हुई तो दोनों सुस्त ही दिखे पर काकी की सेवा पा कर दो दिन में दौड़ने लगे। मरे हुए साप को जमीन में जगह मिली और एक आफत परिवार के सर से टल गई। शामू काका भी पिघल गए और दोनों को प्यार करने लगे, कहने लगे कि किसी को भी प्यार दिया जाय तो बेकार नहीं जाता है। मतेल्हु और झबरी जब तक रहे एक सदस्य की तरह रहे और घर का कोई अनिष्ट नहीं हुआ। काकी का प्यार और दुलार लोग तो भूल ही गए पर झबरी और मतेल्हु जब तक रहे, काकी की चर्चा कहीं न कहीं झलकती रही। झबरी ने कबरी को पैदा किया जो आज भी म्याऊं म्याऊं करती रहती है पर मतेल्हु की औलाद न जाने किसके दरवाजे पर दुम हिला रही है............
महातम मिश्र (गौतम)