"भटकन"
सुन री
बावरी सुन किधर जा रही है
ये
गली वो नहीं तूं जिधर जा रही है
लौट आ महलों को उठाए है बेसबर
ख़्वाबों की जिंदगी
कब बेपीर रही है।।
हकीकत से दूर किसे तलाशती है
गैरे महफ़िल किसकी अमीर रही है।।
परछाइयाँ किसे धनवान बना गईं हैं
रातों से पूछ किसकी जागीर रही है।।
जेहन पर कर्ज मर्ज गर्ज तो सबके है
धीरज की बूटी अर्क अकसीर रही है।।
ललक में पतले धागे को तोड़ती है
अंजाम लहूलौह की जंजीर रही है।।
जाना है तो जा किसे कौन रोकता है
वापसी की बिगड़ी तस्वीर रही है।।
कुछ नहीं बिगड़ा अभी भी वक्त है
भटकनों की ऐसी ही तकदीर रही है।।
अनसुना कर जाती लकीरे फ़क़ीर है
बिगड़ी तो कर कैसे मजबूर रही है।।
महातम
मिश्र, गौतम गोरखपुरी