"ग़ज़ल"
रातों की रानी ने कैसी अलख जगाई है
चंचल कलियों में मादक
महक पिराई है
बागों का माली चंहके
चंपा चमेली संग
रातरानी ने घूँघट पट को
सहज उठाई है।।
मंद मंद माँद से निकलते
हुए कुछ मणिधर
लिपटने को आतुर रातरानी
भरमाई है।।
खतरों से खेले है चाह
पंनग शिकारी सी
गफलत की झाड़ी में छाँह
सरक उग आई है।।
हरी हरी डाली श्वेत
पुष्प गुच्छ धारी ये
अल्हण सी डालियों के
बीच में इतराई है।।
दिन में बीमार सी लगे
है रातरानी बहुत
किसकी मजाल कहे छाई
चंचल रुबाई है।।
लता बेसहारे की बोझिल
बेसुध उलझन सी
चांदनी को देखी तो
पसारे पंख आई है।।
देखो भी गौतम इन रातों
की रौनक रीती
हरे कागज़ ने फर्स पर
रातरानी उगाई है।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी