मंच को सादर निवेदित है, तदन नव प्रयास के साथ कुछ मुकरियां...........
“मुकरियां”
मन मह छाए रहता नितप्रति
बहुरि करूँगी उससे विनती
कह सुन लूँगी उससे बाता
है सखि साजन, नहि सखि दाता॥
रात सताए हाथ न आए
इधर उधर जा गोता खाए
रखूँ सम्हारी न धीरज धारे
है सखि साजन, नहि सखि तारे॥
मैं उसको वह मुझको निरखे
सुबह शाम देखत मन हरखे
चन्द्रमुखी मुख नैनन काजल
है सखि साजन नहि सखि बादल॥
लहराए उड़ जाए नाहक
मन ही मन खुश वह चाहक
कासों जतन करूँ न सांचल
है सखि साजन नहि सखि आंचल॥
बोझी नींद सुलाए अँखिया
कैसे बताऊँ अपनी बतिया
रात रात घर जागूँ अपना
है सखि साजन नहि सखि सपना॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी