पत्र एक मित्र को
प्रिय
सखा, नवल
बिहारी
स्वस्तीश्री
सर्बोउपमा योग्य, अत्र
कुशलम त्त्रास्तु,
याद तो आई पर पांती नहीं आई। जीवन का दिन रफ़ता रफ्ता रंडकता रहा। जब तुम साथ थे तब न दुआ, न प्रणाम, न दिखावा, न छलावा और न ही कोई दूरावा था।
अगर कुछ था, तो केवल और केवल खेलने की ललक थी। न कोई चेहरा था, न ही कोई मोहरा, बस एक
नटखट सी आकृति थी। जिसे दूर से ही पहचान जाते थे और गुल्ली डंडा उछलने लगता था।
घर-घरौदा बनने बिगड़ने लगता था, कबड्डी की रेखा जमीन पर खिंच जाती थी और मल्ल युद्ध मरोड़ने
लगता था। कभी तेरी चित्त तो कभी मेरी पट्ट, बिना रेफरी के हाथ पैर फुलाए हुए, दोनों रात में कराहने लगते थे और माँ सरसों का तेल गरमाकर ताबड़तोड़ चटाका लगाकर दर्द
भगा देती थी। फिर
सुबह की पटरी स्कूल के रास्ते पर बोफोर्स तोप की तरह गोला फेकने लगती थी और मास्टर
साहब का फौलादी सीना फूलने पचकने लगता था। फिर शाम आती थी और भूजा भेली से भरी
थैली, खलिहान
में धनवान बन जाती थी। छुट्टी का रविवार आता और तलाव- पोखरा, समुंदर की भांति लहरें उछलने लगते थे। याद तो होगा तुझे जब तूँ तैराकी
का पदक जीता था और तेरे घर रोना-पीटना शुरू हो गया था। खैर अच्छा हुआ जी गया तूँ
और बलराम भैया के हाथ लगा गया बरना आज चिट्ठी किसे लिखता।
गुस्सा तेरे नाक पर रहता है।
नाराज मत होना इतमीनान से पढ़ना। यह पत्र जवानी बीत जाने पर लिख रहा हूँ, बचपन में तूँ प्यार था, जवानी में नफरत बन गया, अब तो सुधर जा साले। किस पर हेकड़ी मार रहा है, पता है मुझे, तेरे रग-रग से वाकिफ हूँ। आज भी तो तेरी थैली कंगाल ही
है। बेवकूफ, पसीने के पैसे से मित्र खरीदने गया
था, वह भी उस शहर में जहाँ पैसे के बदले बिन अपराध के दुश्मनी
की दुकान चलती है। बता तो, कितना कमाया और कितना खरीदा, मन भर गया हो तो ठीक है वरना आ जाना बिना दमड़ी का एक दोस्त-दुश्मन मुफ़त में
तैयार बैठा है। याद आ गई तेरी और पता भी, लिखने बैठ गया चिट्ठी, तुझे तो तब भी नहीं आती थी
चिट्ठी लिखाई, जब पैसे बिना की बैरन गाँव में कइयों के घर आंसू पर आंसू
बहाती थी। जमुनिया की माई हर पंद्रह दिन में चिटठा लिए आ जाती और अनाप सनाप लिखवा
कर डब्बे में डालने के लिए तुझे चार आना पकड़ा देती। पक्का बनिया है रे तूँ, बचपन में भी अपने अवगुण भजा लेता था और मैं लिख लिख कर तेरी
कमाई करा देता था। दूध के दांत तो तेरे पास थे ही नहीं, चोरी के गन्ने चुसाई ने सबको झरा दिया
था। असली का क्या हाल है, सलामत या सतुआ ही बुका रहा है। मेरे माथे पर चाँद चमकाने
लगा है तेरी चोटी है या मैदान सफ़ाचट हो गया है। चश्मा का नंबर तो मेरा भी आ गया है
तेरी रतौनी कैसी है। भौजी के हाथ का भरता याद आता है, तुझे तो हरदम दाल फराई ही भाँती थी। रिटायर होने बाद अंग्रेज ही रहेगा या
भारत की मांटी महकेगा। शुद्ध भोजन और ए. सी. वाला घर यहाँ भी मिलेगा, आ, एकबार मुलाकात तो हो जाय, बच्चों को याद कहना अगर कहने लायक हो तो?.......चल फिर अगले ख़त में......जय राम जी की.......
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी हो गया है जैसे तूँ नावल बिहाड़ी.......