"बाग़ बिन पर्यावरण"
बुजुर्गों ने अपने हाथों से बाग़ लगाया था गाँव के चारों ओर, याद है मुझे। मेरा गांव बागों से
घिरा हुआ एक सुन्दर सा उपवन था।कहीं से भी निकल जाओं, फलों से मन अघा जाता था। महुआ, जामुन मुफ़्त में मिल जाते थे तो
आम, आव
भगत के रसीले रस भर देते थे। शीतल हवा हिलोरें मारती थी तो बौर के खुश्बू, हर आने जाने वालों को तरोताजा कर
देते थे। हर बाग में कुंए पानी पिलाते थे तो घास पूस की मंडई थकान उतार देती थी।
गर्मी के चार महीने सुख चैन से बीत जाते और बरसात की बौछार से लोग हरे भरे हो जाते
थे। जमाना बदला तो बाप दादा की पुस्तैनी बागों में सरकारी जमीन का उदय हुआ जिसे
बंजर कहा जाता है। खूब जोर शोर से पहल हुई तो बड़ें बड़े घने पेड़ों के साथ बागों की
जमीन अबैध कब्जे में खिसकने लगी और अपनी ही संपत्ति का सरकारी जुरमाना मुक्करर हो
गया। पेड़ कटा लो और जमीन छोड़ दो, अन्यथा जुर्माने के साथ जेल की
हवा खाओं, बागों
की हवा बहुत खा लिए। आनन फानन में पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाले पूर्वजों की
निशानी समेटे मोटे मोटे पेड़ धराशायी होने लगे और हरियाली की चौहद्दी बिरान हो गई।
कुछ तो पहले ही आंधी तूफान में जमीन दोस्त हो चुके थे बाकि के भूमिहीनों को आश्रय
देने में बलि का बकरा बन गए। मेरे पूर्वजों ने भी तनहा बाग लगाया था जिसमें खड़े
पेड़ यह अहसास दिलाते थे कि संस्कार और परोपकार की भावना से समाज को छाया देने वाले
वे महान लोग अब भी हमारे साथ हैं और अपने आगोश में बिठाकर कर दुलार कर रहे हैं।
जिसमे के दो पेड़ बंजर में आ गए और जिस दिन कटे उस दिन घर में खाना नहीं बना, उनकी शिनाख्त धीरे धीरे मिट गई और
बाग का पर्यावरण बिगड़ गया। कुछ जमीन बच गई जिसमे के बचे हुए पेड़ बेसहारा हो गए और
हल्की सी हवा में उखड़ते गए आज वह जमीन खाली पड़ी है मानों कह रही है मुझे फिर से
बाग़ बनाओ और फल खाओं। पर कैसे उसे हरा भरा करूँ, हर लोग शहरी हो गए, किसे फुरसत है कि पेड़ लगाए। उजड़
गए सारे लोग, बागों
को उजाड़ने के बाद, भरभरा
गए सारे घर, हरियाली
खोने के बाद।
खैर, खूब लूटा है लोगों ने जंगलों को
और खूब काटा है इंसान ने पेड़ों को। अब आज पर्यावरण दिन मनाया जा रहा है जिसे हम 365
दिन खेतों, खलिहानों और उद्यानों में हरवक्त
सोते जागते मनाया करते थे। अब तो कम्प्यूटर के हरे भरे पेड़ ही बधाई के पात्र हैं
जो खूब सुर्खियाँ बटोर रहे हैं, आप अगर चाहते हैं मैं भी बधाई दूँ
तो ले लीजिए पर शकून मेरे बस में नहीं है उसे नहीं दे सकता, अतः क्षमा करें इसके लिए आप को
पेड़ों की छैया तले जाना ही पड़ेगा, आज नहीं तो कल.......मैं तो
उन्हीं कटे हुए पेड़ों से दो तख्ता बनवा लिया था उसी पर बैठकर अपने दरवाजे पर दशहरी
आम के छोटे छोटे पेड़ों के निचे पूर्वजों के आगोश में बैठने का अहसास करते हुए खुली
हवा में पर्यावण को प्रणाम कर रहा हूँ जो सृष्टि का परम पूर्वज है।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी