मंच के समस्त सम्माननीय सदस्यों के समक्ष सादर प्रस्तुत है एक ग़ज़ल……..
“गज़ल” (किसकी छबी है ये)
किसने इसे फेंका यहाँ, रद्दी समझ कर के
हाथों से उठा अपने, पड़ी किसकी छबी है ये
यहाँ तो ढ़ेर कचरे का, इसे भी ला यहीं डाला
महज कूड़ा समझ बैठा, बता किसकी छबी है ये॥
जरा सी जान बाकी है, सलवटें खोलकर देखों
जमाने को दिखा देखों, गिरी किसकी छबी है ये॥
इसे किसने उड़ेला है, कोई सुराग तो होगा
हटा परदा दिखा मुखड़ा, खता किसकी छबी है ये॥
डर उस समय जाते तो, ये तस्वीर न होती
गुनाहों से तनिक पुछो, भला किसकी छबी है ये॥
चूप्पी साधे बैठा है, लगता जिश्म वह बहरा
किलकारी अनसुनी करदी, डरी किसकी छबी है ये॥
मन कचरा तन कचरा, कचरे पर सुला देते
ओढ़ते पाप का कचरा, घिरी किसकी छबी है ये॥
जन्नत के दिवानों देख लो, इस जहन्नुम को
मुखड़ा चाँद जैसा ले, बुझी किसकी छबी है ये॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी