मंचके समस्त सुधीजनों केसमक्ष प्रस्तुत है एक गज़ल.........
“गज़ल” (मन मनाने लगी)
वो जमीं प्यार की, याद आने लगी
वीणा बिनतार ही, कुनमुनाने लगी
किस धुन पे चढ़ी, बावरी झुनझुनी
अंगुलियाँ आपही, मनमनाने लगी॥
न मौसम कोई, न कोई रागिनी
ये फिज़ाएँ अलग, गुलखिलाने लगी॥
बेवफा बादलों की, घुमड़ती चलन
बेमौसम की बदरी , छमछमाने लगी॥
रोक लेता इन्हें, पर ये मुमकिन नहीं
देखों आहट हुई, छटपटाने लगी॥
काश मनकी तमन्ना, भी मन मारती
पर मुनादी ये, महफिल सजाने लगी॥
कहूँ कैसे दिलग्गी है, दिल की लगी
देख दिल है तो, दिलको जलाने लगी॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी