संस्मरण-
गांव
और आभाव दोनों का गहरा नाता रहा है। अब ऐसे परिवेश में क्या संस्मरण और कैसी यादें, जिंदगी रोटी
से शुरू होती है और रोटी पर समाप्त हो जाती है। हाँ आज कुछ परिवेश बदला जरूर हैं
फिर भी रोटी, रोजी और माथे पर एक ओढना कर पाना, कइयों का
स्वप्न आज भी दिवास्वपन बनकर हलाल जरूर हो रहा है। बहुत ही पुरानी बात है मेरे
मामा अपना सबकुछ गाँव में ही छोड़कर शहर में बस गए, पर सारी
संपत्ति जिसे सौपकर गए वह महाशय आज भी उनकी जायजाद को जायजाद की तरह तो रिश्तों को
भी जायजाद की तरह ही सम्हाले हुए है, लगता ही
नहीं कि वे हमारे सगे मामा नहीं हैं। खैर एक बार मैं ननिहाल गया तो मेरी नई वाली
मामी ने इतना आदर सम्मान किया कि मैं भी सम्मानित हो गया। लगा कि मेरा भी कोई वजूद
है और मुझे अब हर जगह आना- जाना
चाहिए।
दोपहर
का समय मामी ने खाना परोशा और प्रतिष्ठित मेहमान की तरह मैं चौके पर गया। क्या
जलसा था किसी राजा से कम मेरी औकात न लगी मुझे। कोई पंखा झल रहा है कोई पानी गिलास
में डाल रहा है तो कोई मांछी ही हांक रहा है। अजीब स्वागत, मेरे घर जब
कभी गुरु जी आते थे तो ऐसा ही स्वागत किया जाता था। मैं कभी अपने को देखता तो कभी
गुरु जी की याद में खो जाता, मामी ने कहा
बाबू खाना खाइये, अअअअअ हां, और रोटी
तोड़कर दाल वाली वाटकी में डुबाया पर कौर मुंह तक आते आते मेरा माथा घूम गया, डालडा मुझे
पसंद नहीं था और मामी ने शुद्ध घी समझ कर पूरी बरनी ही उड़ेल दिया था। किसी तरह पहला
कौर तो निगल गया लेकिन मुझे छठी का दूध याद आ गया, दुबारा उस
वाटकी को देखा तक नहीं और सब्जियों से काम चलाने लगा। सबकी नजर बाझ की तरह मेरे पर
लगी थी उन्हें पता चल गया कि दाल में कुछ काला है और मामी ने पूछ ही डाला, अरे बाबू
दाल आप को पसंद नहीं है क्या, कैसे कह दूँ
कि दाल ही मेरा प्रिय भोजन है। सकुचाते हुए कहा, मामी दाल तो
मुझे खूब पसंद है और अच्छी भी है पर लगता है छौंका आप ने भूल से डालडे का लगा दिया
है और डालडा मुझे बिकलुल भी पसंद नहीं है। इतना सुनते ही मामी का कलेजा काँप गया, माथा पकड़ के
बैठ गई, अरे दइया ई का हो गवा, घी की जगह
डालडा की बरनी हाथ में आ गई, और झपट कर
दाल वाली वाटकी लेकर विलाप करने लगी। कुछ दाल बटुली में थी तुरंत दूसरी वाटकी में
घी के साथ भरकर इतनी जल्दी लाई कि क्या बताऊँ। जब तक मैं वहां रहा पछताती ही रही
और मुझे भी यह वाकया नहीं भूलता, कारण जो
अपनापन और प्यार मामी ने कुछ घंटों में दिया आज तक न मिला।
महातम मिश्र, गौतम
गोरखपुरी