मुक्त काव्य, मात्रा भार- 22
सुबह होती है तो शाम भी होती है
असल चेहरों से पहचान भी होती है
पर मन तो मन की मानता साहब
अवगुणी से कहाँ राम राम होती
है॥
मल में कमल खिलता है बहुधा
मखमली
मल नहाते ताल में मचाकर खलबली
उगता रहता कमल मला मल के मल में
रुक कमल को निहारन लगी है
चुलबुली॥
महकता यह महल बेखौफ हुआ जाता
भार उठाता गरीब डर से मर जाता
झूलता फानूस रात तिलमिला जाती
फिर कोई मल एक कमली खिला जाता॥
मल को अब तो अमला अमल में लीजिए
रुकिए इस कमल को मल तो न दीजिए
रहिमन कबीर जायसी अरु तुलसी सूर
हो सके तो मान मन मल्लों का भी
कीजिए॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी