"पद"
कान्हा अब तो धरा उबारो
आओ देखों मीन पियासी, ताल तलैया खारो।
बूंद बूंद को तरसत धरती, फिर मानव तन धारो।।
बैर बढ़ा के खैर तलाशे, वहि कंसा को मारो।
माधव नारी वारी हारी, हिय करुणा हुक्कारो।।
मानों परवत हुआ अधीरा, छा छवि वाहि निवारो
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी