" गीतिका "
शाम का पहर है चांदनी भी खिली होगी
आ चलें समन्दर किनारों पे गलगली होगी
वो लहर उफ़नकर चूमती जो दिदारों को
जान तो लो किस हसर में वो तलहटी होगी।।
मौजा उछल रही होगी चिघड़ती दहाड़ती
भूगर्भ में मची अब कैसी खलबली होगी।।
धार नहाती होगी रिमझिम फुहार लिए
मचलती होगी कैसे अधीर मछली होगी।।
समन्दर खार लिए हुए खूब हिलता होगा
चारों दिशाओं सहित नाव भी चली होगी।।
पतवार डूबती होगी पानी के भीतर जब
नाविक हाथ हत्था सवारी हिलती होगी।।
लंगर लुहारी धौकनी होगी कैसी गौतम
बेड़ा बड़े तूफान से भिड़ती लड़ती होगी।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी