विधाता विधा-- गीतिका मापनी --1222. 1222 1222. 1222,
“गीतिका”
महक उठता सुखा उपवन तरलता पास आने पर।
निगाहें भी छलक जाती मधुरता हाथ आने पर॥
बहुत देखा जमाने को बिठाया दिल वीराने में।
कहीं से चाह ना आई दिले दिलदार जाने पर॥
खुली खिड़की खड़कती है हवावों की भनक पाते।
दीवारों से लिपट जाती जरा सी राह पाने पर॥
मरहला ये नहीं होता कि साथी सबर पिना है।
मगर मजबूर हो जातीहवा के दूर जाने पर॥
चिंहुक जाती रगड़ खाके बिना मतलब गिला पाए।
दुखा जाती ललकती चाह पाती टूट जाने पर॥
यही अंजाम होता है यहाँ बागों बहारों का।
भ्रमर भी रुक उड़ा करते तनिक आवाज होने पर॥
सम्हल पाना कठिन होता उडाकर नींद ख्वाबों में।
यही तो बात है गौतम न रुकता नूर जाने पर॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी