आजकल होने वाले कुछ आंदोलनों में ,ख़ास कर कुछ युवा आन्दोलनों में एक नारा बड़ी उलझन में डाल देता है और डराता भी है। वह है "आज़ादी, हमें चाहिये आज़ादी।" इसके साथ एक से अधिक उलझे सवाल पैदा किये जाते है। आंदोलन फासिस्ट और सांप्रदायिक लोगों ,पार्टियों या सरकारों के खिलाफ बताया जाता है और नारे में आगे जोड़ दिया
लोकतन्त्र में जायज कुछ चीजें ऐसी हैं कि कब उनका रूप नाजायज़ हो जाये कुछ कह नहीं सकते । एक है किसी मांग को लेकर आंदोलन और जुलूस। नहीं कह सकते कि कब ये हिंसक और विध्वंसकारी हो जाये । कुछ नारे कनफ्यूज करते हैं ,और डराते भी हैं । उनमें एक है "हमें चाहिये आज़ादी"। बड़े संघर्ष और बलिदानों के बाद तो देश को आज़
अमीरों ने मुन्ताकिब किया गरीबों का मसीहा. गरीबों को इंतिख़ाब का अख़्त्यार कहा हैं. (आलिम) नसीब नहीं जिनको है निवाला ए दो वक्त, ख़ाक वो अपने मसीहा को चुनेंगे. (आलिम) मसीहा भी उन्ही का और ख़ुदा भी उन्ही का, हम में कोई क़ाबिले इन्तिख़ाब कहाँ
भारत की जल या थल सेना हो या वायु सेना हो इसके इतिहास से लेकर आजतक ऐसे वीर पैदा हुए हैं, जिनकी गाथाएं अमर हैं। साथ ही, ये गाथाएं सदियों तक याद की जाएंगी। ऐसे ही एक अमर वीर की कहानी हम आपको बताएंगे जिनकी बहादुरी के किस्से हर भारतीय को जानना चाहिए। फील्ड मार्शल सैम होर्मूसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ, जि
आज़ादी इज़हार की इनायत ख़ुदा की है, आज़ादी पे काबू तौहीन- ए - ख़ुदा है. (आलिम)
आज हम आज़ादी का मजा लेते हुए अपने घरों में बड़े-बड़े मुद्दों को बड़ी आसानी से बहस में उड़ा देते है, लेकिन कभी सोचा है कि जिन्होंने अपनी जान की परवाह ना करते हुए देश को आज़ाद कराया, उनमें से जो जिंदा हैं, वो किस हाल में हैं ?ये हैं झाँसी के रहने वाले श्रीपत जी, 93 साल से भी ज्यादा की उम्र पार कर चुके श्रीप
नई दिल्ली: आजादी की 70वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे अपने देश के लोगों को ये तो जरूर पता होगा कि आजादी के लिए कितनी कुर्बानियां देनी पड़ी है. लेकिन आपको शायद ही पता होगा की मुल्क की आजादी के लिए नारी शक्ति ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. लेकिन उन महिलाओं को इतिहास ने भुला दिया है. आज हम आपको बताने जा
हमारे देश की आज़ादी को 70 साल हो गये। लेकिन आज़ादी क्या है इसके बारे में लोगों ने अपनी अपनी परिभाषाएँ व धारणाएं बना रखी है । आज़ादी आज़ादी चिल्लाते हुए कुछ लोग आजकल भी यहाँ वहाँ दिख जाते हैं । कुछ लोग कहते हैं हम अभी भी पूर्ण आज़ाद नहीं हुए हैं । आलंकारिक या दार्शनिक रूप से आज़ादी शब्द का प्रयोग या राजन
जिस देश में बेटियां बिकने पर मजबूर हों और बेटे घर परिवार की सुरक्षा के लिए कलम की बजाय बंदूक पकड़ने को मजबूर हो जाएँ, तो ऐसी आजादी बेमानी होने की बात मन में उठना स्वभाविक है. बाजार हो या ट्रेन, या बस हो, कब छुपाकर रखा बम फट जाये, इस दहशत में आजाद भारत में जीना पड़े तो इसे विडंबना ही कहा जायेगा. जहाँ ए