आजकल होने वाले कुछ आंदोलनों में ,ख़ास कर कुछ युवा आन्दोलनों में एक नारा बड़ी उलझन में डाल देता है और डराता भी है। वह है "आज़ादी, हमें चाहिये आज़ादी।" इसके साथ एक से अधिक उलझे सवाल पैदा किये जाते है। आंदोलन फासिस्ट और सांप्रदायिक लोगों ,पार्टियों या सरकारों के खिलाफ बताया जाता है और नारे में आगे जोड़ दिया जाता है , इंशा अल्ला।
स्थानीय वर्चस्व की लड़ाई में एक से अधिक गुट सर फुटब्बल करते है गालियां कहो तो सीधे ट्रम्प और जिनपिंग को दें। इनके खिलाफ इस स्तर के नीचे कोई साजिश करे इन्हें बर्दाश्त नहीं। इन गुटों के नेता छोटे मोटे हाथों में नहीं खेलते। इनको चने के झाड़ पर चढ़ा कर उकसाने और पीठ पर हाथ रखने के लिए शीर्ष के नेता ,धन पति हाज़िर रहते है। विदेशी हाथ भी आश्वासन की मुद्रा में रहते है।
हम तो कन्फूज हो ही जाते हैं कि बड़े संघर्षों और कुर्बानियों के बाद इंडिया १९४७ में आज़ाद हुआ था। अब किसने क्या कर दिया? इतनी जल्दी हमने उसे दांव पर लगा दिया !
वीर रस की कविता की तरह इस नारे का अपना असर है। यह जोश और विद्रोह से भरा नारा है। यह जोश और विद्रोह किसके खिलाफ? अगर पार्टीयों की बात है तो दुसरी पार्टी अपनी नजर में उतनी ही सही हो सकती है जितना पहली पार्टी। और अगर व्यवस्था के खिलाफ है तो यह सामूहिक दायित्व है। सब सुधार में अपनी ऊर्जा लगाए।