भारत की जल या थल सेना हो या वायु सेना हो इसके इतिहास से लेकर आजतक ऐसे वीर पैदा हुए हैं, जिनकी गाथाएं अमर हैं। साथ ही, ये गाथाएं सदियों तक याद की जाएंगी। ऐसे ही एक अमर वीर की कहानी हम आपको बताएंगे जिनकी बहादुरी के किस्से हर भारतीय को जानना चाहिए।
फील्ड मार्शल सैम होर्मूसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ, जिन्हे एमसी के नाम से जाना जाता है। ऐसे विद्रोही, जो पिता की इच्छा के विरुद्ध भारतीय सेना से जुड़े। 3 अप्रैल 1914 को पंजाब के अमृतसर में एक पारसी परिवार में इनका जन्म हुआ था।
पहले विश्वयुद्ध के दौरान सैम मानेकशॉ के पिता होर्मूसजी मानेकशॉ ने बतौर डॉक्टर अंग्रेजी सेना में सेवा दी थी। होर्मूसजी, सैम को भी डॉक्टर बनाना चाहते थे पर सैम ने 1932 में देहरादून में इंडियन मिलिट्री एकेडमी में दाखिला ले लिया। इंडियन मिलिट्री एकेडमी में ट्रेनिंग के दौरान सैम मानेकशॉ ने अपनी प्रतिभा दिखानी शुरू कर दी थी। मिलिट्री एकेडमी से ट्रेनिंग खत्म होने के बाद सबसे पहले सैम 2nd बटालियन, द रॉयल स्कॉट्स से जुड़े। इसके बाद 54th सिख रेजिमेंट , बर्मा में उनकी पोस्टिंग हुई।
सैम मानेकशॉ की भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी। उन्हें पंजाबी, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी और गुजराती तो बोलनी आती ही थी, पश्तो में भी उन्हें महारत हासिल थी। अक्टूबर 1938 में उन्हें पश्तो में हायर स्टैण्डर्ड आर्मी इंटरप्रेटर बनाया गया।
सेना में उनके कार्यकाल का एक अहम हिस्सा था 1971 का युद्ध। 1971 में भारतीय सेना की पूर्व पाकिस्तान में विजय का पूरा श्रेय मानेकशॉ को जाता है। मानेकशॉ और आघा मुहम्मद खान (1971 के युद्ध के दौरान पाकिस्तान के सेना प्रमुख) अविभाजित भारत में फील्ड मार्शल सर क्लॉउड़े ऑचिंक्लिक के साथ काम किया था। आघा खान को मानेकशॉ की लाल जेम्स मोटरसाइकिल काफी पसंद थी, जिसे उसने मानेकशॉ से 1000 रुपए देने के वादे पर विभाजन के समय खरीदा था। भारतीय सेना ने बांग्लादेश की आजादी में सहायता की और मानेकशॉ ने जनरल पर चुटकी लेते हुए कहा, 'उसने मेरी बाइक के लिए 1000 रुपए कभी नहीं दिए, अब आधा देश देकर कीमत चुकानी पड़ी है।'