आज हम आज़ादी का मजा लेते हुए अपने घरों में बड़े-बड़े मुद्दों को बड़ी आसानी से बहस में उड़ा देते है, लेकिन कभी सोचा है कि जिन्होंने अपनी जान की परवाह ना करते हुए देश को आज़ाद कराया, उनमें से जो जिंदा हैं, वो किस हाल में हैं ? ये हैं झाँसी के रहने वाले श्रीपत जी, 93 साल से भी ज्यादा की उम्र पार कर चुके श्रीपत जी झाँसी में दिए गये नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी के भाषण से प्रभावित होकर आज़ाद हिन्द सेना में शामिल हुए थे । श्रीपत जी अपनी जान की परवाह किये बिना देश की आज़ादी के लिए लड़े, देश तो आज़ाद हो गया, लेकिन वो खुद हालातों के हाथों गुलाम हो गये, और गुलाम भी ऐसे हुए कि आज उन्हें अपनी जिंदगी गुजारने के लिए भीख तक मांगनी पड़ रही है । ऐसा नही है कि स्वतंत्रता सेनानी श्रीपत के हालात पहले से ही खराब थे, उनके पास झाँसी में 7 एकड़ जमीन, और एक लाइसेंसी बन्दूक भी थी, इनकी ज़िन्दगी अच्छी चल रही थी, लेकिन किस्मत ने पलटी मारी और आज़ाद हिन्द फ़ौज के इस सिपाही को दर-दर भटकने पर मजबूर कर दिया । कभी देश के लिए लड़ने वाला ये सिपाही आज जिंदगी की तमाम परेशानियों से जूझ रहा है। श्रीपत के बेटे तुलसिया को नशे और जुए की ऐसी लत लगी, जिसने अच्छी खासी चल रही जिंदगी को तबाह कर दिया । जुए और नशे की लत में तुलसिया 7 एकड़ जमीन के साथ-साथ सब कुछ बेचता चला गया, और धीरे धीरे ये परिवार कंगाल होता गया । श्रीपत ने तुलसिया को नशे से दूर रखने के लिए काफी उपाय किए, लेकिन तुलसिया नशें और जुए में ऐसा डूबा, जिसका नतीजा पूरे परिवार को भुगतना पड़ रहा है । जब तक हाथ-पैर काम कर रहे थे, तब तक खेतों में मजदूरी करते रहे, लेकिन जब शरीर से भी असमर्थ हो गये, तब असहाय होकर आज आज़ाद हिन्द फौज का ये सिपाही अपनी जिंदगी गुजारने के लिए दर-दर भटकते हुए भीख मांगने पर मजबूर हो गया। श्रीपत कहते हैं कि मेरी हालत जो भी हो, लेकिन मरते दम तक मेरी इच्छा यही रहेगी कि मैं अपने देश के काम आ सकूँ । मेरा सौभाग्य था कि मैं नेताजी के साथ उनकी सेना में शामिल होकर देश के लिए लड़ सका । श्रीपत जी आजकल अपनी पत्नी के साथ हंसारी में एक झोपड़ी में रहतें हैं । ऐसा नही है कि आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले सेनानियों में सिर्फ यही अकेले हैं, ऐसे और बहुत से उदाहरण हैं हमारे देश में, जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ लुटा दिया, लेकिन सुध लेने वाला कोई नही। श्रीपत की तरह बहराइच के प्रयागपुर में रहने वाले ओरीलाल 1942 में ब्रिटिश सेना छोड़कर आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो गये थे । ओरीलाल ने दूसरे विश्व युद्ध में आजाद हिंद फौज की तरफ से रेडहिल इम्फाल में ऑपरेशन यूजीओ की कमान संभाली थी। 99 साल के हो चुके ओरीलाल का शरीर जवाब देने लगा है, स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते उन्हें पेंशन तो मिलती है, लेकिन इस पेंशन से उनके घर का गुजारा नहीं हो पाता है, जिसके लिए उन्हें खाने के लिए दूसरों के सामने हाथ फैलाना पड़ रहा है। कक्षा पांच तक ही पढ़ाई करने वाले ओरीलाल 1939 में ब्रिटिश सेना में सिपाही के तौर पर भर्ती हो गए थे, अंग्रेजों के साथ आए दिन उन्हें अपने हिन्दुस्तानियों को पीटना पड़ता था। जिसके कारण वो अन्दर से पूरे टूट चुके थे, और 1942 में ब्रिटिश सेना की नौकरी छोड़कर वो आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए। ओरीलाल कहते हैं कि संघर्ष के बीच जब देश आजाद हुआ तो लगा था कि देश की लड़ाई लड़ने वालों का सम्मान होगा, लेकिन लगता है कि देश आज भी गुलाम है। पहले 100 रुपए पेंशन मिलती थी, अब तीन सालों से चार हजार रुपए मिलने लगी है, इससे पूरे परिवार का गुजारा भी नहीं होता है। ऐसे में उन्हें लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ रहा है। क्या आज़ादी के सिपाहियों का यही इनाम है ? आखिर ऐसा क्यूं हो रहा है कि स्वतंत्रता सेनानियों ने जिनके लिए लड़ाई वो तो आज़ादी की हवा में आगे बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन उनकी हालत और उनके हालात की किसी को फ़िक्र नही । आखिर उन्हें कितनी ख़ुशी मिलती होगी उस देश में, जिसके लिए वो अपनी जिंदगी लुटा दिए कि देश आज़ाद हो सके, आज़ाद तो हुआ लेकिन उनकी हालत एक गुलाम से भी बद्तर हो गयी। ओरीलाल और श्रीपत जैसे ना जाने कितने आज़ादी के सिपाही होंगे इस देश में, जो दर-दर भीख मांगकर जिंदगी जी रहे हैं । उन्होंने देश आज़ाद कराया था, तो क्या उसका यही सिला मिलना चाहिए कि उन्हें ज़िदगी की जंग भीख मांग कर गुजारनी पड़े ! वो सिपाही, वो वीर इस लायक भी नही कि वो अपनी जिंदगी सम्मान के साथ गुजार सकें । सरकार के साथ-साथ समाज की भी जिम्मेदारी बनती है, कि जिनकी वजह से वो आज़ादी में जी रहे हैं, उन्हें उनकी सही जगह मिले । सोचियेगा जरूर !