मेरे प्यारे अलबेले मित्रों !
बारम्बार नमन आपको🙏🙏
परिचर्चा के लिए आज का अत्यंत हीं महत्वपूर्ण विषय है कर्म और भाग्य ।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा -
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ।
जो जस करहीं सो तस फल चाखा ॥
इस चौपाई से लगता है कि कर्म ही श्रेष्ठ है,परन्तु यह भी लिखते हैं कि -
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावहिं साखा ॥
अतः अब हम किसका अनुसरण करें कर्म का अथवा भाग्य का ?
वास्तव में कर्म और भाग्य परस्पर सम्बंधित हैं और एक दूसरे के पूरक हैं । कर्म क्रिया है और भाग्य उसकी प्रतिक्रिया ।
ईश्वर द्वारा निर्धारित नियम के अनुसार हीं इस प्रकृति का स्वतः सञ्चालन होता है ।जीवन एवं मृत्यु एक सतत प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहती है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत मनुष्य जो भी कर्म या क्रिया करता है वह प्रतिक्रिया स्वरुप उसके भाग्य में परिणत हो जाती है। उसी के अनुसार आगामी जीवन में उसे अच्छे या बुरे फल प्राप्त होते हैं ।
कई बार लोग आजीवन अच्छे कर्म करने के बाद भी दुःख भोगते हैं जबकि कुछ लोग बुरे कर्म करने के बाद भी सुखी जीवन व्यतीत करते हैं । कर्मफल भोग भी एक सतत प्रक्रिया है जो कि मनुष्य के पूर्व के समस्त जन्मों के कर्म पर आधारित होता है ।
मनुष्य के भाग्य का निर्धारण तीन प्रकार के कर्मों के आधार पर होता है-
1.हमारे पूर्व के समस्त जन्मों के संचित किये हुए कर्म इस श्रेणी में आते हैं । हमें अपने आगामी समस्त जन्मों में इन्ही कर्मों के फल का भोग करना होता है ।
2.पिछले अनेक जन्मों के कर्मफल मनुष्य के जन्म से पूर्व उसके संचित कर्मों का एक छोटा सा भाग उस जन्म में भोग हेतु निर्धारित किया जाता है, वही उसका प्रारब्ध कर्म है,जिसके अनुसार उसकी जाति, कुल, गोत्र एवं उस जन्म के भाग्य का निर्धारण होता है ।
3.जन्म के उपरांत वर्तमान में मनुष्य जो कर्म करता है वही उसका क्रियमाण कर्म कहलाता है। जो आगे चलकर संचित कर्म में परिणत हो जाता है । संचित कर्म के दो भाग होते हैं । इसके एक भाग का फल इसी जीवन में भोगना पड़ता है और दूसरा भाग संचित कर्म में सम्मिलित हो जाता है ।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रियमाण कर्म द्वारा हम अपने भाग्य में परिवर्तित कर सकते हैं, क्योंकि अनेक जन्मों के क्रियमाण कर्म ही संचित कर्म होते हैं । यदि संचित कर्मों में परिवर्तन होता है तो भाग्य में भी निश्चित
ही परिवर्तन होगा । अत: भाग्य को बदला जा सकता है ।
गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है-
हे पार्थ ! प्रकृति में कोई भी कर्म बंधन से परे नहीं है। बिना कर्म किये कोई एक क्षण भी नहीं रह सकता है । सभी प्रकृति से पैदा हुए गुणों से विवश होकर कर्म करते
हैं । अत: कर्म करते रहना चाहिए । सहज कर्म का उद्देश्य निर्मल होना चाहिए । दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि जैसे अग्नि धूएँ से आवृत्त होती है वैसे ही हर कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होता है ।वर्तमान के कर्म ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं । अतः हमें सदैव सत्कर्म में रत रहकर अपना भाग्य बदलना चाहिए ।
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:-अंजनी कुमार आज़ाद,आरा,पटना,बिहार