...खेत-खलिहान, घाट-बाट, बाग-बगीचे, पोखर-महार पर खनखनाती जरीब की कड़ी घसीटी जा रही है-खन-खन-खन!
नया नक्शा बन रहा है।
नया खाता, नया पर्चा और जमीन के नए मालिक।
तनाजा के बाद तसदीका तसदीक करने के लिए कानूनगो से ज्यादा पावरवाले नए हाकिम साहब आए हैं। ए.एस.ओ. साहब-असिस्टेंट सर्वे ऑफिसर। हर नया हाकिम नया एलान करता है-बाउंड्री-तनाजा हम कुछ नहीं जानते। हम फिर शुरू से जाँच करेंगे।...यही सरकुलर आया है।
आठ वर्षों से जातिवाद के दीमकों का मुख्य आहार रहा है मनुष्य का हृदय। सर्वे की आँधी में छलनी-जैसा आदमी का दिल-पीपल के सखे पत्ते की तरह उड़ रहा है।
पिछले डेढ़ साल से गाँव में न कोई पर्व ही धूमधाम से मनाया गया है और न किसी त्योहार में बाजे ही बजे हैं। इस दरम्यान, संसार में आनेवाले नए मेहमानों के स्वागत में-सोहर का गीत, सो भी कहीं नहीं गाया गया। लड़केलड़कियों के ब्याह रुके हए हैं।...गीत के नाम पर किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है मानो। मधुमक्खी के सूखे मधुचक्र-सी बन गई है यह दुनिया!
फणीश्वर नाथ रेणु की अन्य किताबें
फणीश्वर नाथ ' रेणु ' का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले में फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में हुआ था। उस समय यह पूर्णिया जिले में था। उनकी शिक्षा भारत और नेपाल में हुई। रेणु जी का बिहार के कटिहार से गहरा संबंध रहा है। पहली शादी कटिहार जिले के हसनगंज प्रखंड अंतर्गत बलुआ ग्राम में काशी नाथ विश्वास की पुत्री रेखा रेणु से हुई इनकी लेखन-शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र-निर्माण काफी तेजी से होता था इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। एक आदिम रात्रि की महक इसका एक सुंदर उदाहरण है। रेणु की कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने आंचलिक जीवन के हर धुन, हर गंध, हर लय, हर ताल, हर सुर, हर सुंदरता और हर कुरूपता को शब्दों में बांधने की सफल कोशिश की है। उनकी भाषा-शैली में एक जादुई सा असर है जो पाठकों को अपने साथ बांध कर रखता है। मानों कोई कहानी सुना रहा हो। ग्राम्य जीवन के लोकगीतों का उन्होंने अपने कथा साहित्य में बड़ा ही सर्जनात्मक प्रयोग किया है। रेणु को जितनी ख्याति हिंदी साहित्य में अपने उपन्यास मैला आँचल से मिली, उसकी मिसाल मिलना दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातो-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद इसे हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित करने में भी देर नहीं की। हिंदी साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकर रेणु जी का बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास 1954 में हुआ। इस उपन्यास में ना केवल हिंदी उपन्यासों को एक नई दिशा दी है, बल्कि इसी उपन्यास से हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श प्रारंभ हुआ आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा साहित्य में गांव की भाषा संस्कृत और वहां के लोक जीवन को केंद्र में ला खड़ा किया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक संस्कृति, लोकसभा और लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी भरकम चीज और नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है, इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ से शस्य श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल भरा और मैला भी है। स्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है। फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ जी की भाषा आम बोल-चाल की खड़ी बोली है। इनकी भाषा में तद्भव शब्दों के साथ बिहार के पूर्णिया, सहरसा, अररिया जिलों के ग्रामीण अंचल में बोले जाने वाले आंचलिक शब्दों की अधिकता है। उनकी भाषा प्रसाद गुण युक्त सरल, सहज तथा मार्मिक है। उनका वाक्य विन्यास सरल, संक्षिप्त और रोचक है। वाक्य विन्यास आंचलिक प्रभाव से अछूता नहीं है उनके संवाद पात्रानुकूल, रोचक तथा कथा को गति प्रदान करने वाले हैं। भाषा की बनावट में आंचलिकता के प्रदर्शन के लिए उन्होंने अपने भाषा में आंचलिक लोकोक्तियां एवं मुहावरे सूक्तियों का खुलकर प्रयोग किया है। D