परानपुर बहुत पुराना गाँव है।...1880 साल में मि. बुकानन ने अपनी पूर्णिया रिपोर्ट में इस गाँव के बारे में लिखा है-परातन ग्राम परानपर। इस इलाके के लोग परानपुर को सारे अंचल का प्राण कहते हैं। अक्षरश: सत्य है यह कथन। गाँव से पश्चिम बहती हुई दुलारीदाय की धारा। तीन ओर विशाल प्रान्तर, तृण-तरुशून्य लाखों एकड़ बादामी रंग की धरती! दुलारीदाय इसकी पश्चिमी रेखा है-जहाँ से हरियाली शुरू होकर पच्छिम की ओर गहरी होती गई है। अपने दोनों हाथों से दोनों कछार की धरती पर सुख-समृद्धि बाँटती हुई दुलारीदाय, वन्ध्या धरती की संवेदना में बहती अश्रधारा-जैसी!...गाँव के दक्खिन हजारों सेमल के पेड़ों का बाग है, सेमलबनी। फूलों के मौसम में लाल आसमान को मैंने देखा है-अपलक नेत्रों से, अचरज-भरी निगाहों से। लाल आसमान!
सेमल का बाग आज भी है। हर पाँच-सात साल के बाद नई पौध। सात साल पहले एक दियासलाई कम्पनी का ठेकेदार आया और सेमल-जिसके फल को गिलहरी भी न खाए, जिसकी लकड़ी से कोई मर्दा भी न जलाए-शीशम के दर बिकने लगा। लेकिन, इसी को कहते हैं तकदीर का खेल। सेमलबनी के जमींदार के अधपगले पत्र जित्तन बाबू ने साफ जवाब दे दिया-एक भी पेड़ नहीं बेचूंगा । साठ हजार रुपए की आखिरी डाक देकर कम्पनी का ठेकेदार चला गया।...अब हाय-हाय करने से क्या होता है? जमींदारी खत्म हो गई। सेमलबनी पर सरकार का कब्जा हो गया है। सरकार जो चाहे करे। सुना है, जित्तन बाबू ने हाईकोर्ट में अरजी दी है-सेमल के बाग का सर्वनाश न किया जाए!
पागल आदमी को कौन समझाए! किन्तु जित्तन बाबू का परिवार पुराना है। परानपुर गाँव के एक उजड़े खंडहर-जैसे मकान की एक कोठरी में बैठकर जित्तन बाबू यानी श्री जितेन्द्रनाथ मिश्रजी एकटक खिड़की से देख रहे हैंपोखरे में सुपारी, नारियल, साबूदाना तथा यूक्लिप्टस के वृक्षों की परछाइयों को। हल्की चाँदनी की चदरी धीरे-धीरे बिला रही है...। कमरे में हरिकेन का प्रकाश है। दीवार पर देगाँ की एक तस्वीर की कॉपी फ्रेम में लटकी है-आधा दर्जन अर्धनग्न नर्तकियों की टोली-नृत्यरता नायिकाएँ! स्वस्थ फ्रेंच युवतियों की इन रंगीन तस्वीरों की कपा से जित्तन बाब इधर काफी कख्यात हो गए हैं गाँव में।...धौली की माँ ने गाँव-भर में प्रचार किया है, "हवेली में झाड़ देने कौन जाए? नहीं करती ऐसी नौकरी! सारी कोठरी में मार नंगी मेम की छापी टाँगे हुए है। आँख मूंदकर कोई कैसे झाडू दे, कहो?"
गाँव के प्रसिद्ध और पुराने लाल बुझक्कड़ भिम्मल मामा ने ग्राम पुस्तकालय के पठनागार में घोषणा की-“बदधि भ्रष्ट होने से आदमी सबकुछ कर सकता है।-जित्तन इज़ सफरिंग फ्रॉम सेक्सोलॉजिया। मैलेरिया, फैलेरिया, डायरिया, पायरिया आदि रोगों से भी मारात्मक रोग है यह सेक्सोलॉजिया।"
भिम्मल मामा जित्तन बाबू की ड्योढ़ी में रोज जाते हैं, किन्तु उनके कमरे में कभी पाँव नहीं देते। कहते हैं-"बूचड़खाने में लटकते हुए खस्सी बकरों की कटी-छिली हुई देह देखकर माथा चक्कर खाने लगता है। आइ कांट स्टैंड फ्लेश विद ब्लॅड...बरदाश्त नहीं कर सकता मांस के लोथड़ों के बीच..."
गाँव की सबसे फैशनेबल युवती जयवन्ती का कहना है-“उस दिन फिलिमकट ब्लाउज पहनकर हवेली के पिछवाड़े से जा रही थी। छि:-छि:, कितना असभ्य हो जाता है आदमी शहर में रहते-रहते! एकटक देखता ही रहा, देखता ही रहा। मैं डर गई-आँखें हैं उसकी या...?"
जितेन्द्रनाथ रोज इन तस्वीरों की ओर देखकर मन-ही-मन बुदबुदाते हैं-'पिजारो, वैन गॉग, रेनोऑ, देगाँ! तुम्हारी प्रेमिकाओं को प्रणाम! मानमेंट को एक क्षण भी प्यार करनेवाली भद्र महिलाओं को श्रद्धापूर्ण नमस्कार!'
गाँव के लड़कों ने जित्तन बाबू के पागल होने का बहुत-सा प्रमाण एकत्रित किया है; सिलसिलेवार सुनने को मिलता है पठनागार में।
किन्तु इस पागल अथवा सनकी को छोड़ने से काम नहीं चलेगा। इस गाँव के सामने फैली विशाल परती की डेढ़ हजार बीघे जमीन का मालिक अकेला वही है। दुलारीदाय के बीच प्रसिद्ध कुंडों का स्वामी, बरदियाघाट से लेकर मीरघाट तक की धरती का जमींदार!
दस-पन्द्रह वर्षों के बाद गाँव लौटे हैं जित्तन बाबू।...परानपुर के पानी में अब फिर मिठास लौट आई है शायद। छह महीने हो रहे हैं, गाँव में जमकर बैठे हैं। टूटते हुए गाँव में यह साबुत किन्तु सनकी आदमी...।
परानपुर ही नहीं, सभी गाँव टूट रहे हैं। गाँव के परिवार टूट रहे हैं, व्यक्ति टूट रहा है-रोज-रोज, काँच के बर्तनों की तरह।...नहीं!...निर्माण भी हो रहा है।...नया गाँव, नए परिवार और नए लोग!
गाँवों का नवनिर्माण हो रहा है। टूटे हुए खंडहरों को साफ करके नींवें डाली जा रही हैं। शिलान्यास हो रहा है। खूब धूमधाम से नई इमारतों की बँधाईगँथाई चल रही है।...नई ईंट के साथ पुरानी किन्तु काम के योग्य ईंटों को मिलाकर दीवार बना रहा है राजमिस्त्री। अपनी बसूली से वह पुरानी ईंटों को बजा-बजाकर कहता है-“इसी ईंट को असली सूरजमुखी ईंट कहते हैं।...यह हमारे ठेकेदार साहब की ईंट नहीं कि मुट्ठी में मसलकर, आँख में झोक दिया...।"
गाँव के बड़े-बूढों का कहना है, कूप खोदते समय, नींव लेते समय मिस्त्री और मजदूरों की पीठ पर सवार रहना चाहिए। माटी के नीचे से न जाने कब क्या चीज निकल आए!
सतर्क दृष्टि से देखना होता है; चमकदार चीज को पैर के नीचे दबा रखते हैं ये। समय-समय पर इन गड्ढों में खुद उतरकर देखना बुद्धिमानी है। नई इमारत की बुलन्द होनेवाली दीवारों की गँथाई देखिए-कच्ची ईंटों पर नजर रखिए!