सर्वे सेटलमेंट के हाकिम साहब परेशान हैं। परानपुर इस्टेट की कोई भी जमा ऐसी नहीं जो बेदाग़ हो। सभी जमा को लेकर एकाधिक खूनी मुकदमे हुए हैं; आदमी मरे हैं, मारे गए हैं।...ऐसे मामलों में बगैर जिला सर्वे ऑफिसर से सलाह लिये वे अपनी कोई राय नहीं दे सकते।
सर्वे की कचहरी छित्तनबाबू के गुहाल में लगी है। हाकिम इजलास पर बैठ गए।...परानपुर इस्टेट के कारपरदाज मुंशी जलधारीलाल दास की सूरत से ही नफरत है ए.एस.ओ. साहब को।
“कहाँ-आँ-आँ जितेन्द्रनाथ मिसरा आ-आ-आ! जितेन्द्रनाथ मिसरा हा-आ-आ-जिर हो! कहाँ मीर समसुद्दीन...” सेटलमेंट ऑफिसर के चपरासी ने हाँक लगाई। दो हाँक लगाने के बाद, विरक्त होकर बड़बड़ाने लगा-"इस्टेट के कारकुन के कान के पास लौडस्पीकर कौन लगाने जाए!"
मुंशी जलधारीलाल दास कान से कम सुनते हैं। कितना कम सुनते हैं, यह कहना कठिन है। अपने काम की बात सुनते हैं जल्दी, बेकाम की बातों के समय निपट बधिर बने मुस्कराते रहते हैं।
हाकिम को मुंशी जलधारी की यह मुस्कराहट ज़रा भी नहीं सुहाती। आज दुलारीदाय-जमा की नत्थी खुलेगी। दासजी कागजात की झोली लेकर कचहरी-घर में दाखिल हुए।
हाकिम ने देखते ही चिढ़कर कहा-“जितेन्द्रनाथ आज भी कचहरी नहीं आए? मालूम है सब मिलाकर डेढ़ सौ रुपए जुर्माना हो चुका है।...पहले जुर्माना दाखिल कीजिए।"
मुंशी जलधारीलाल दास झोली से डेढ़ सौ रुपए निकालकर पेशकार साहब के सामने गिनते हैं। तीस नत्थी का, पाँच रुपए के दर से-डेढ़ सौ रुपए!
हाकिम को भी जिद सवार है, देखें कितना जुर्माना भरते हैं जितेन्द्रनाथ बहादुर!
मुंशी जलधारीलाल को भरी कचहरी में मदारी के बन्दर-जैसा नचाने में आनन्द आता है हाकिम को, कभी-कभी। मुंशी की चमड़ी निश्चय ही गैंडे की चमड़ी-जैसी है। उनकी खिचड़ी मूंछों के अन्दर की मुस्कराहट को कभी मन्द नहीं कर सके हाकिम साहब!
"इस लकड़ी के डिब्बे में क्या ले आए हैं दासजी ? बुलबुलतरंग है क्या?" हाकिम ने हँसते हुए पूछा।
“हा-हा-हा-हा-हा"-कचहरी के लोग ठठाकर हँस पड़े-“बुलबुलतरंग!"
“दस्तावेज है हुजूर। दुलारीदाय-जमा का सेलडीड-दानपत्तर।"
“दानपत्र? डिब्बे में?" हाकिम साहब पुन: मुस्कराकर कोई बात ढूँढ़ रहे हैं। डिब्बे को हाथ में लेते ही बोले-“यह तो पूरा अलादीन का चिराग मालूम होता है।"
“हा-हा-हा-हा-हा-अलादीन का चिराग-अलबत्त दिलदार यार हैं हाकिम साहेब...!"
“चिराग गोल होता है, इसकी लम्बाई बारह इंच है हुजूर!" दासजी की दबी हुई बोली मूंछों की झुरमुट से निकली।
हाकिम ज़रा अप्रतिभ हो गए।...चन्दनकाष्ठ का कास्केट। हाकिम ने कास्केट को नाक से सूंघते हुए पूछा-“दानपत्तर में इत्र लगाकर रखा गया है क्या ?"
“दानपत्तर-इत्तर-हा-हा-हा-हा!"
“नहीं हजूर! असली मलयागिरि चन्दनकाठ है।” दासजी अपनी मुस्कराहट को धीरे-धीरे खोलना जानते हैं।
कास्केट की कारीगरी पर हाकिम की आँखें हठात स्थिर हो जाती हैं।...पेड़, पहाड़, झरना और काठ का मन्दिर। चित्रकला से थोड़ी-सी दिलचस्पी रखनेवाला पहचान सकता है, यह नेपाली कारीगरी है।
“पशुपतिनाथ मेला, नेपाल में खरीद हुआ था हुजूर!"
“अच्छा?" हाकिम साहब कास्केट के कील-कब्जे को ध्यान से देखते हैं।
"असली सोना है।" कास्केट के अन्दर से गोल लपेटा हआ दानपत्र निकालकर, जरीदार रेशमी डोरी और डोरी के झब्बों को कुछ देर तक देखते हैं। दानपत्र के प्रारम्भिक अंश में जापानी पदधति से-कदलीवक्ष, मंगलघट, जौ की बालियाँ अंकित हैं। सधे हए हाथ के मोती-जैसे अंग्रेजी अक्षर!
हाकिम साहब ने पिछले साल आई.ए.एस. परीक्षा की तैयारी के समय ही नन्दलाल बसु का नाम सुना था-पहली बार। आजकल प्रश्नों में, साधारण ज्ञान की बातों में यह सब भी पूछा जाता है-चित्रकार, गवैया, बजवैया, नचवैया! आदमी कितने नाम याद रखे!
"क्या लिखा है? लाइखाट...?"
“लिखितम् है हुजूर। रोमन में लिखा हुआ है-लिखितम्।"
हाकिम ने मुंशी जलधारीलाल की ओर गौर से देखा-कौन कहता है यह आदमी बहरा है?
“यह मिसेज़ रोज़उड कौन थी?" ।
कौन थी वह मेम, हाकिम साहब के सिर के छोटे-छोटे बाल अचरज से खड़े हो गए, मानो! सुपुष्ट अंग्रेजी लिपि में संस्कृत वाक्य-देवपुत्रतुल्य मम प्राणाधिक चिरंजीवी जितेन्द्रनाथ-लिखनेवाली अंग्रेज महिला कौन थी?