धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर।
पतिता भूमि, परती जमीन, वन्ध्या धरती...।
धरती नहीं, धरती की लाश, जिस पर कफ की तरह फैली हुई हैं बलूचरों की पंक्तियाँ। उत्तर नेपाल से शुरू होकर, दक्षिण गंगातट तक, पूर्णिमा जिले के नक्शे को दो असम भागों में विभक्त करता हुआ_फैला-फैला यह विशाल भू-भाग। लाखों एकड़-भूमि, जिस पर सिर्फ बरसात में क्षणिक आशा की तरह दूब हरी हो जाती है।
सम्भवतः तीन-चार सौ वर्ष पहले इस अंचल में कोसी मैया की यह महाविनाश-लीला हुई होगी। लाखों एकड़ जमीन को अचानक लकवा मार गया होगा। एक विशाल भू-भाग, हठात् कुछ-से-कुछ हो गया होगा। सफेद बालू से कूप, तालाब, नदी-नाले पट गए। मिटती हुई हरियाली पर हल्का बादामी रंग धीरे-धीरे छा गया।
कच्छपपृष्ठसदृश भूमि ! कछुआ पीठा जमीन ? तन्त्रसाधकों से पूछिए, ऐसी धरती के बारे में वे कहेंगे_असल स्थान वही है जहाँ बैठकर सबकुछ साधा जा सकता है। कथा है...।
कथा होगी अवश्य इस परती की भी। व्यथा-भरी कथा वन्ध्या धरती की ! इस पाँतर की छोटी-मोटी, दुबली-पतली नदियाँ आज भी चार महीने तक भरे गले से, कलकल सुर में गाकर सुना जाती हैं, जिसे हम नहीं समझ पाते।
कथा की एक कड़ी, कार्तिक से माघ तक प्रति रात्रि के पिछले प्रहर में, सुनाई पड़ती है_आज भी ! सफेद बालूचरों में चरनेवाली हंसा-चकेवा की जोड़ी रात्रि की निस्तब्धता को भंग कर किलक उठती है कभी-कभी। हिमालय से उतरी परी बोलती है_केंक्-केंके-कें-एँ-एँ-गाँ-आँ-केंक् !
एक बालूचर से दूसरे बालूचर, दूसरे से तीसरे में_हज़ारों जोड़े पखेरू अपनी-अपनी भाषा में इस कड़ी को दुहराते हैं। दूर तक फैली हुई धरती पर सरगम के सुर में प्रतिध्वनि की लहरें बढ़ती जाती हैं_एक स्वरतरंग !
हिमालय के परदेशी पँछियों की टोलियाँ, नाना जाति-वर्ण-रंग की जोड़ियाँ प्रतिवर्ष हज़ारों की संख्या में पहाड़ से उतरती हैं_हहास मारती हुईं। फिर फागुन-चैत के पहले ही लौट जाती हैं। भूल-भटकी एकाध रह जाती हैं जो कभी-कभी उदास होकर पुकारती और अपनी ही आवाज में प्रतिध्वनि सुनकर, विकल होकर पाँखें पसारकर उड़ती-पुकारती जाती हैं_केंक्-केंक्-कें-एँ-एँ !
परदेशी चिरैया की करुण पुकार से वन्ध्या धरती की व्यथा बढ़ती है। कौन समझाए भूली पहाड़ी चकई को ? तुत्तु_चुप-चुप।
वन्ध्या धरती की व्यथा को पंडुकी ही समझती है, जो बारहों मास अपना दुख-दर्द सुनाकर मिट्टी के मन की पीड़ा हरने की चेष्टा करती है। वैशाख-जेठ की भरी दोपहरी में सारी परती काँपती रहती है, सफेद बालूचरों की पंक्तियाँ मानो आकाश में उड़ने को पाँखें तौलती रहती हैं। रह-रहकर धूलों का गुब्बारा_घूर्णिचक्र-सा_ऊपर उठता है ! इस घूर्णिचक्र में देव रहते हैं।
परती पर बहुत से देव-दानव रहते हैं। किन्तु, वन्ध्या धरती की पीड़ा हरने की क्षमता किसी में नहीं। पंडुकी व्यथा समझती है, क्योंकि वह एक वन्ध्या रानी की परिचारिका रह चुकी है। वैशाख की उदास दोपहरी में वह करुण सुर में पुकारती है_तुर तुत्तु-उ-उ, तू-उ, तुःउ, तूः। अर्थात्, उठ जित्तू_चाउर पूरे, पूरे-पूरे !
वैशाख की दोपहरी और भी मनहूस हो जाती है। किन्तु, निराश नहीं होती पंडुकी। अपने मृत पुत्र जित्तू को भूलने का बहाना करती है। आँसू पोंछ, उठ खड़ी होती है, फिर नाच-नाचकर शुरू करती है। सुर बदल जाता है और छोटे घुँघरू की तरह शब्द झनक उठते हैं
तु त्तु तुर, तुरा तुत्त।
बेटा भेल-लोकी लेल।
बेटी भेल-फेंकी देल।
क्या करोगी बेटा-बेटी लेकर, ओ रानी माँ, क्या होगा बेटा लेकर ? मुझे देखो, बेटा हुआ। कलेजे से सटा लिया। खुशी से नाचने लगी। इस खुशी में बेटी को फेंक दिया।...बेटा को काल ले गया। अब ? सब विध-विधाता का खेल है रानी माँ ! दुख मत करो। मुझे देखो, दुख से कलेजा फटता है, फिर भी कूटती हूँ, पीसती हूँ, कमाती हूँ, खाती हूं, गाती हूँ, नाचती हूँ : तु त्तु-तुर, तुरा-तुत्त !
किन्तु, वन्ध्या धरती माता की पीड़ा और भी बढ़ जाती है_ओ पंडुकी सखी ! कोखजली की ग्लानि तुम क्या समझो !
तब, पंडुकी पुनः अपने प्यारे जित्तू को आतुर होकर पुकारने लगती है_उठ जित्तू-ऊ, चाउर पूरे, पूरे-पूरे !
...वन्ध्या रानी माँ का धान कूटती थी पंडुकी। जित्तू जब गोदी में ही था, डगमगाकर चलता था, थोड़ा-थोड़ा। उसी उम्र में जित्तू को कहानी सुनने का कितना शौक था ! आँचल पकड़कर रोता-फिरता। काम के बीच में कभी-कभी पंडुकी उसे गोद में लेकर दूध पिलाती और एक कथा सुनाकर सुला देती। रोज-रोज नई कथा कहाँ से आए ! रानी माँ के मुँह से सुनी रानी माँ की दुख-दर्द-भरी कहानी के एकाध टुकड़े चुपचाप सुना देती।...रानी माँ पंडुकी से सत्त कराकर अपनी कहानी सुनाती। पंडुकी सत्त करती_एक सत्त दो सत्त...किसी और से नहीं कहूँगा रानी माँ।...जित्तु तो कोई और नहीं। उसे सुनाने में क्या दोष !
एक दिन ऐसा हुआ कि भरी दोपहरी में, काम के बेर जित्तू आकर रोने लगा_बिजूबन-बिजूखंड का पता पूछना लगा।...वह देवी मन्दिर का खाँड़ा लेगा, पंखराज घोड़े पर सवार होकर बिजूबन-बिजूखंड जाएगा। राक्षस के घर में वन्ध्या रानी की सुख-समृद्धि एक कलस में बन्द है। वह लड़ाई करेगा...। भोला जित्तू !
जित्तू वन्ध्या रानी माँ की उमड़ती हुई आँखों को पोंछना चाहता है। अपनी माँ के आँसुओं को भी वही पोंछा करता था। पंडुकी बोली_देख बेटा ! रोज-रोज चावल घट जाता है। समय पर तैयार नहीं होता। चावल पुर जाए तो तुझे सब कथा सुना दूँगी। तब तक उस पाखर पेड़ के नीचे जाकर सो रहो। जित्तू चला गया, चुपचाप। सो रहा पेड़ की छाया में_माँ के मुँह से सब कथा सुनने की आशा में। पंडुकी धान कूटने में मगन हो गई। उधर काल ने आकर जित्तू की कहानी समाप्त कर दी।
चावल पूरा हो गया। धान कूटते समय ही पंडुकी कथा की कड़ी जोड़ चुकी थी। जित्तू को पुकारा_उठ बेटा जित्तू, चावल पूरा हो गया_तुर-तुत्तु-उ-उ...।
एक बार जित्तू उठ जाए, एक ही क्षण के लिए। पंडुकी ऐसी कहानी सुनाएगी, ऐसी कहानी कि फिर...। बेचारा जित्तू अधूरी कहानी के सपने देखता सोया हुआ है। आँखें खोलो, पाँखें तोलो...बोलो ! ओ जित्तू, ओ जित्तू ! उठ जित्तू...!
चिरई-चुरमुन भी कहानी पर परतीत न हो, सम्भव है।
परती की अन्तहीन कहानी की एक परिकथा वह बूढा भैंसवार भी कहता है। गँजेड़ी है तो क्या !
गुनी आदमी ज़रा अमल पाँत लेता ही है। एक चिलम गाँजा कबूलकर कितने पीर-फकीर और साई-गोसाईं से यन्त्र-मन्त्र और वाक् लेते हैं लोग !