परानपुर गाँव के पूरब-उत्तर-कछुआ-पीठा भूमि पर खड़ा होकर एक नौजवान देख रहा है-अपने कैमरे की कीमती आँख से-धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर। पतिता भूमि, बालूचरों की श्रृंखला। हिमालय की चोटी पर डूबते हुए सूरज की रोशनी चमकती है।
अर्धवृत्ताकार होकर चली गई है ईस्टर्न रेलवे की एक ब्रांच लाइन। लाइन के किनारे के खम्भों की पंक्तियों के तारों पर बैठी हुई पंक्तिबद्ध किस्म-किस्म की चिड़ियों के मुँह लाइन की ओर!...ठीक गाड़ी आने के समय, सिगनल के गिरते ही, परती पर चरती हुई चिड़ियों में एक हल्की चुनमुनाहट होती है और वे टेलीग्राफ के तारों पर जा बैठती हैं; चुपचाप बैठी नहीं रहतीं, अपनी बोली में कचर-पचर बोलती ही रहती हैं। युवक कैमरामैन श्री भवेशनाथ एम.ए. की परीक्षा देकर आया है-परती के विभिन्न रूपों का अध्ययन करने। कैमरे का व्यू-फाइंडर उसकी अपनी आँख है, असली आँख है। वह मन-ही-मन सोचता है...तीस साल! बस, तीस साल और! इसके बाद तो सारी धरती इन्द्रधनुषी हो जाएगी। तब तक रंगीन फोटोग्राफी का विकास भी हो जाएगा।...झक-झकाझक-झका...! मालगाड़ी जा रही है। रोज तीन मालगाड़ियाँ!
गाड़ी परानपुर स्टेशन पर कुछ देर रुककर खुल जाती है।...आश्चर्य! गाड़ी जाते ही चिड़ियों की टोलियाँ फुर्र हो गईं। मानो किसी की प्रतीक्षा में वे सामूहिक रूप से पंक्तिबद्ध होकर रोज बैठती हैं...निराश भी नहीं होतीं कभी।
भवेशनाथ को वराहक्षेत्र की याद आती है। पिछले आठ-नौ साल से वह वराहक्षेत्र जाता है। पुरातन तीर्थ तो है ही-भवेश का वह नया तीर्थ है। वहाँ आदमी लड़ रहा है!...बड़े-बड़े टनल के अन्दर काम होते उसने देखा है; पहाड़ काटनेवाले कितने पहाड़ी जवानों के क्लोज़-अप उसके पास हैं। अरुण, तिमुर तथा सुणकोशी के संगम पर बैठकर पानी मापनेवाले, सिल्ट की परीक्षा करनेवाले विशेषज्ञों को वह भूल नहीं पाता है। पहाड़ों की कन्दराओं में तपस्या में लीन देवगण!...प्राणों में घुले हए रंग धरती पर फैलते क्यों नहीं? वह रंगीन फोटोग्राफी में दक्ष है।
भवेश ने देखा है, धरती पर रंग फैलते हैं।...दस साल पहले, एक शुभचिन्तक व्यक्ति की कृपा से, रोटरी क्लब में, उसने एक छायाचित्र देखा था-टैनिसी वैली स्कीम का आयोजन! बीसवीं सदी के अर्थनैतिक जगत् के महान् महाजन मुल्क के अन्तर्गत टैनिसी अंचल के किसानों की अवस्था देखकर वह अवाक् हो गया था। हिन्दुस्तान के अभागे किसानों से किसी भी माने में कम नहीं। इसी तरह पुराने हल से खेती करते थे, टूटे-फूटे झोंपड़ों में रहते थे। राह-घाट-बाट ठीक इसी तरह।...इसके बाद दिखलाया गया टैनिसी योजना का सूत्रपातय इस सम्बन्ध में जनमत-ग्रहण!...योजना के पक्ष में राय लेने, इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में स्पष्ट धारणा पैदा करने का आयोजन!...और छायाचित्र के अन्त में स्कीम के कामयाब होने के बाद, उस उजाड़, बंजर और बेकार अंचल में युगान्तरकारी परिवर्तन। दिन फिरे हैं किसानों के, खेतों में ट्रेक्टर चल रहे हैं, नई-नई मशीनों के द्वारा फसल काटी जा रही है। हाइड्रो-इलेक्ट्रिसिटी की सहायता से बड़े-बड़े कल-कारखाने खुल गए। सब मिलाकर एक स्वप्नलोक की सष्टि साकार...।
आसमान में पंचमी का चाँद हँसता है और परती पर भवेश की हल्की छाया डोलती है!
फणीश्वर नाथ रेणु की अन्य किताबें
फणीश्वर नाथ ' रेणु ' का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले में फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में हुआ था। उस समय यह पूर्णिया जिले में था। उनकी शिक्षा भारत और नेपाल में हुई। रेणु जी का बिहार के कटिहार से गहरा संबंध रहा है। पहली शादी कटिहार जिले के हसनगंज प्रखंड अंतर्गत बलुआ ग्राम में काशी नाथ विश्वास की पुत्री रेखा रेणु से हुई इनकी लेखन-शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र-निर्माण काफी तेजी से होता था इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। एक आदिम रात्रि की महक इसका एक सुंदर उदाहरण है। रेणु की कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने आंचलिक जीवन के हर धुन, हर गंध, हर लय, हर ताल, हर सुर, हर सुंदरता और हर कुरूपता को शब्दों में बांधने की सफल कोशिश की है। उनकी भाषा-शैली में एक जादुई सा असर है जो पाठकों को अपने साथ बांध कर रखता है। मानों कोई कहानी सुना रहा हो। ग्राम्य जीवन के लोकगीतों का उन्होंने अपने कथा साहित्य में बड़ा ही सर्जनात्मक प्रयोग किया है। रेणु को जितनी ख्याति हिंदी साहित्य में अपने उपन्यास मैला आँचल से मिली, उसकी मिसाल मिलना दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातो-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद इसे हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित करने में भी देर नहीं की। हिंदी साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकर रेणु जी का बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास 1954 में हुआ। इस उपन्यास में ना केवल हिंदी उपन्यासों को एक नई दिशा दी है, बल्कि इसी उपन्यास से हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श प्रारंभ हुआ आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा साहित्य में गांव की भाषा संस्कृत और वहां के लोक जीवन को केंद्र में ला खड़ा किया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक संस्कृति, लोकसभा और लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी भरकम चीज और नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है, इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ से शस्य श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल भरा और मैला भी है। स्वतंत्र भारत में उनकी रचनाएं विकास को शहर-केंद्रित बनाने वालों का ध्यान अंचल के समस्याओं की ओर खींचती है। वे अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के कारण अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। उनकी इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य में अपने जीवन दशा को बदल लेने की शक्ति भी है। फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ जी की भाषा आम बोल-चाल की खड़ी बोली है। इनकी भाषा में तद्भव शब्दों के साथ बिहार के पूर्णिया, सहरसा, अररिया जिलों के ग्रामीण अंचल में बोले जाने वाले आंचलिक शब्दों की अधिकता है। उनकी भाषा प्रसाद गुण युक्त सरल, सहज तथा मार्मिक है। उनका वाक्य विन्यास सरल, संक्षिप्त और रोचक है। वाक्य विन्यास आंचलिक प्रभाव से अछूता नहीं है उनके संवाद पात्रानुकूल, रोचक तथा कथा को गति प्रदान करने वाले हैं। भाषा की बनावट में आंचलिकता के प्रदर्शन के लिए उन्होंने अपने भाषा में आंचलिक लोकोक्तियां एवं मुहावरे सूक्तियों का खुलकर प्रयोग किया है। D