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भाग 2

18 जुलाई 2022

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कोसी मैया की कथा ? जै कोसका महारानी की जै !

परिव्याप्त परती की ओर सजल दृष्टि से देखकर वह मन-ही-मन अपने गुरु को सुमरेगा, फिर कान पर हाथ रखकर शुरू करेगा मंगलाचरण जिसे वह बिन्दौनी कहता है : हे-ए-ए-ए, पूरुबे बन्दौनी बन्दौ उगन्त सिरुजे ए-ए...

बीच-बीच में टीका करके समझा देगा_कोसका मैया का नैहर ! पच्छिम-तिरहौत राज। ससुराल-पूरब।

कोसका मैया की सास बड़ी झगड़ाही। जिला-जवार, टोला-परोपट्टा में मशहूर। और दोनों ननदों की क्या पूछिए ! गुणमन्ती और जोगमन्ती। तीनों मिलकर जब गालियाँ देने लगतीं तो लगता कि भाड़ में मकई के दाने भूने जा रहे हैं : फड़र्र-र्र-र्र। कोखजली, पुतखौकी, भतारखौकी, बाँझ ! कोसी मैया के कान के पास झाँझ झनक उठते !

एक बार बड़ी ननद ने बाप लगाकर गाली दी। छोटी ने भाई से अनुचित सम्बन्ध जोड़कर कुछ कहा और सास ने टीप का बन्द लगाया_और माँ ही कौन सतवन्ती थी तेरी।...कि समझिए बारूद की ढेरी में आग की लुत्ती पड़ गई। कोसका महारानी क्रोध से पागल हो गई : आँ-आँ-रे...ए...ए...

रेशमी पटोर मैया फाड़ि फेंकाउली-ई-ई,

सोना के गहनवाँ मैया गाँव में बँटाउली-ई-ई,

आँ-आँ-रे-ए-ए, रु-उ-पा के जे सोरह मन के चू-उ-उर,

रगड़ि कैलक धू-उ-रा जी-ई-ई !

दम मारते हुए, मद्धिम आवाज में जोड़ता है गीतकथाकार_रूपा के सोलह मन के चूर ? बालूचर के बालू पर जाकर देखिए_उस चूर का धूर आज भी बिखरा चिकमिक करता है !

सास-ननद से आखिरी, लड़ाई लड़कर, झगड़कर, छिनमताही कोसी भागी। रोती-पीटती, चीखती-चिल्लाती, हहाती-फुफनाती भागी पच्छिम की ओर-तिरहौत राज, नैहर। सास-ननदों को पँचपहरिया मूर्च्छाबान मारकर सुला दिया था कोसी मैया ने !....रासेत में मैया को अचानक याद आई_जाः गौर में तो माँ के नाम दीप जला ही न पाई !

गीता-कथा-गायक अपनी लाठी उठाकर एक ओर दिखाएगा_ठीक इसी सीध में है गौर, मालदह जिला में। हर साल, अपनी माँ के नाम दीया-बत्ती जलाने के लिए औरतों का बड़ा भारी मेला लगता है।...महीना और तिथि उसे याद नहीं। किन्तु किसी अमावस्या की रात में ही यह मेला लगता है, ऐसा अनुमान है।

_अब, यहाँ का किस्सा यहीं, आगे का सुनहु हवाल। देखिए कि क्या रंग-ताल लगा है ! कोसी मैया लौटी। गौर पहुँचकर दीप जलाई। दीप जलते ही, उधर सास की मूर्चा गई टूट, क्योंकि गौर से दीप जलाने से बाप-कुल, स्वामी-कुल दोनों कुल में इँजीत होता है। उसी इँजोत से सास की मूर्च्छा टूटी। अपनी दोनों बेटियों को गुन माकर जगाया_अरी, उठ गुनमन्ती, जोगमन्ती, दुनू बहिनियाँ !

छोटी ने करवट लेकर कहा_माँ ! चुपचाप सो रहो। बीस कोस भी तो नहीं गई होगी। पचास कोस पर तो मैं उसका झोंटा धरकर घसीटती ला सकती हूँ।

बड़ी बोली_सौ कोस तरह मेरा बेड़ी-बान, कड़ी-छान गुन चलता है। भागने दो, कहाँ जाएगी भागकर ?

माँ बोली_अरी आज ही तो सब गुन-मन्तर देखूँगी तुम दोनों का। तुम्हें पता है, कोसी-पुतोहिया ने गौर में दीप जला दिया ? तुम्हारे जादू का असर उस पर अब नहीं होगा।

_एँय ? क्या-आ-आ ? दोनों बहनें, गुनमन्ती-जोगमन्ती हड़बड़ाकर उठीं। अब सुनिए कि कैसा भौचाल हुआ है। तीनों-माँ-बेटियाँ_अपनी-अपनी गुन की डिबिया लेकर निकलीं।

छोटी ने अपनी डिबिया का ढक्कन खोला_भरी दोपहरी में आट-आठ अमावस्या की रातों का अन्धकार छा गया।

बड़ी ने अपनी अँगूठी के नगीने में बन्द आँधी-पानी को छोड़ा।

_उधर कोसी मैया बेतहाशा भागी जा रही है, भागी जा रही है। रास्ते की नदियों को, धाराओं को, छोटे-बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेर, खैर, साँहुड़, पनियाला, तिनकटिया आदि कँटीले कुकाठों से घाट-बाट बन्द करती छिनमताही भागी जा रही है। आँ-आँ-रे-ए...

थर-थर काँपे धरती मैया, रोए जी आकास :

घड़ी-घड़ी पर मूर्छा लागे, बेर-बेर पियास :

घाट न सूझे, बाट न सूझे, सूझे न अप्पन हाथ...

मूर्च्छा खाकर गिरती, फिर उठती और भागती। अपनी दोनों बेटियों पर माँ हँसी_इसी के बले तुम लोग इतना गुमान करती थीं रे ! देख, सात पुश्त के दुश्मनों पर जो गुन छोड़ना मना है, उसे-ए-ए-छोड़ती हूँ_कुल्हड़िया आँधी, पहड़िया पानी !

कुल्हड़िया आँधी के साथ एक सहस्र कुल्हाड़ेवाले दानव रहते हैं, पहड़िया पानी तो पहाड़ को भी डुबा दे।

अब देखिए कि कुल्हड़िया और आँधी और पहड़िया पानी ने मिलकर कैसा परलय मचाया है : ह-ह-ह-र-र-र-र...! गुड़गुडुम्-आँ-आँ-सि-ई-ई-ई-आँ-गर-गर-गुडुम !

गाँव-घर, गाछ-बिरिच्छ, घर-दरवाज़ा करतली कुल्हड़िया आँधी जब गर्जना करने लगी तो पातालपुरी में बराह भगवान भी घबरा गए। पहाड़िया पानी सात समुन्दर का पानी लेकर एकदम जलामय करता दौड़ा।...तब कोसी मैया हाँफने लगी, हाथ-भर जीभ बाहर निकालकर। अन्दाज लगाकर देखा, नैहर के करीब पहुँच गई हैं और पचास कोस ! भरोसा हुआ। सौ कोसों तक फैले हुए हैं मैया के सगे-सम्बन्धी, भाई-बन्धु। मैया ने पुकारा, अपने बाबा का नाम लेकर, वंश का नाम लेकर, ममेरे-फुफेरे, मौसेरे भाइयों को_भइया रे-ए-ए-, बहिनी की इजतिया तोहरे हाथ !

फिर एक-एक भौजाई का नाम लेकर, अनुनय करके रोई_‘‘भउजी, हे भउजी, लड़िका तोहर खेलायब हे भउजी, ओढ़नी तोहर पखारब हे भउजी-ई-ई, भइया के भेजि तनि दे-ए !’’

कुल्हड़िया आँधी, पहड़िया पानी अब करीब है! एकदम करीब! अब? अब क्या हो?...कोसी की पुकार पर एक मुनियाँ भी न बोली, एक सीकी भी न डोली। कहीं से कोई-ई जवाब नहीं। तब कोसी मैया गला फाड़कर चिल्लाने लगी-अरे! कोई है तो आओ रे! कोई एक दीप जला दो कहीं!

कोई एक दीप जला दे, एक क्षण के लिए भी, तो फिर कोसी मैया से कौन जीत सकता है? कुल्हड़िया आँधी कोसी का आँचल पकड़ने ही वाली थी...कि उधर एक दीप टिमटिमा उठा! कोसी मैया की सबसे छोटी सौतेली बहन दलारीदाय, बरदियाघाट पर, आँचल में एक दीप लेकर आ खड़ी हई। बस, मैया को सहारा मिला और तब उसने उलटकर अपना आखिरी गुन मारा ।

पातालपुरी में बराह भगवान डोले और धरती ऊँची हो गई।

गुनमन्ती और जोगमन्ती दोनों बहिनियाँ अपने ही गुन की आग में जल मरीं।... सास महारानी झमाकर काली हो गई!

उजाला हुआ। कोसी मैया दौड़कर दुलारीदाय से जा लिपटी। फिर तो...आँआँ-रे-ए...

दन रे बहिनियाँ रामा गला जोड़ी बिलखय,

नयना से ढरे झर-झर लो! गला भर आया है बूढ़े कथागायक का।

दोनों बहन गला जोड़कर घंटों रोती-बिलखती रहीं।

हिचकियाँ लेती हुई बोली दुलारीदाय-“दीदी, ज़रा उलट के देख। धरती की कैसी दुर्दशा कर दी है तुम लोगों ने मिलकर। गाँव-के-गाँव उजड़ गए, हज़ारोंहज़ार लोग मर गए। अर्ध-मृतकों की आह-कराह से आसमान काँप रहा है।"

“मरें, मरें! सब मरें! मेरे पिता के टुकड़े पर पलनेवाले ऐसे आत्मीय सम्बन्धियों का न जीना ही अच्छा। जो अपने वंश की एक अभागिन कन्या की पकार पर अपने घर की खिड़की भी न खोल सके। धरती का भार हल्का हआ-वे मरें!"

"धरती कहाँ है दीदी! अब तो धरती की लाश है। सफेद बालचरों में कफन से ढकी धरती की लाश!...इस इलाके में सबसे छोटी बहन को बड़े प्यार से दाय कहकर सम्बोधित करते हैं। दुलारीदाय बहनों में सबसे छोटी-सो भी सौतेली। बड़ी प्यारी बहन! शील-सुभाव इतना अच्छा कि...।

“दीदी, अब भी समय है। उलटकर देखो। क्रोध त्यागो। दुनिया क्या कहेगी?"

कोसी मैया ने उलटकर देखा-सिकियो न डोले! कहीं हरियाली की एक रेखा भी न बची थी। सिहर पड़ी मैया भी! बोली-“नहीं, धरती मरेगी नहीं। जहाँ-जहाँ बैठकर मैं रोयी हूँ, आँसू की उन धाराओं के आसपास धरती का प्राण सिमटा रहेगा।...हर वर्ष पौष पूर्णिमा के दिन उन धाराओं में स्नान से पाप धुलेगा। युग-युग के बाद, एक-एक प्राणी पाप से मुक्त होगा। तब, फिर सारी धरती पर हरियाली छा जाएगी।...धाराओं के आसपास सिमटे हुए प्राण नए-नए रंगों में उभरेंगे।"

दुलारीदाय ने चरण-धूलि ली और मुस्कराकर खड़ी हो गई। कोसी मैया खिलखिलाकर हँस पड़ी-“पगली! दुलारी!...हँसती क्यों है?" मैया हँसी-दुलारी के आँचल में नौ मन हीरे झरे। हाँ, कोसी मैया हँसे तो नौ मन हीरा झरे और रोए तो दस मन मोती! दुलारीदाय को वरदान मिला-“युग-युग तक तुम्हारा नाम रहे। तुम्हारे इलाके का एक प्राणी न भूख से मरेगा, न दुख से रोएगा। न खेती जरेगी और न असमय में अन्न झरेंगे। गुनी-मानी लोग तुम्हारे आँगन में जनमेंगे।...कछुआ-पीठा जमीन पर तन्त्र-साधना करके तुम्हारा मान बढ़ाएगी तुम्हारी सन्तान।"

आज भी देखिए-दुलारीदाय के आँचल-तले पलते जनपद को, गाँवों को, गाँव के लोगों को। उनकी एक परम्परा है।...परानपुर की बात अभी छोड़िएयह तो इस अंचल का प्राण ही है। हाँसा, बिसनपर, पानपत्ती, गीतबास कोठी, महेन्द्रपुर, मधुचन्दा, मधुलता, कँचनार टोली, पलासबनी,...रानीडूबी।

सिर्फ रानीडूबी गाँव पुराकाल से अपनी बदनामी ढो रहा है। बाकी सभी गाँव किसी-न-किसी अंश में अपने नाम की लाज बजा रहे हैं।

दुलारीदाय के दोनों बाजुओं में पलते इन सुखी-समृद्ध गाँवों का प्राण है परानपुर! दुलारीदाय के पूरबी महार पर बसा हुआ है यह गाँव। गाँव के पश्चिम-उत्तर कोण में है बरदियाघाट जहाँ दुलारीदाय आँचल में दीप लेकर प्रकट हई थी।...

“अब तो बैमान जमाना आ गया है बाबू साहब! किसी चीज का न धरम है और न है तेज। न रहे कोई देवता, नहीं रहे देव। जब से रेलगाड़ी आई, सभी देव-देवी भागे पहाड़। एकाध पीर, फकीर, साईं-गोसाईं रह गए तो वे भी अब रेलगाड़ी में चढ़कर दूर-दराज हज, तीरथ करने चले जाते हैं। नहीं तो, दुलारीदाय के इलाके में लगातार चार साल सूखा पड़े भला? अन्धेर है! पहले तो हर साल बरदियाघाट पर मानिक दियरा जलता था, किसी-न-किसी रात में।

पिछले दस-बारह साल से वह भी जलना बन्द है। कलियुग जो समाप्ति पर है!"...बढ़े गीत-कथाकार की वाणी पर विशेष ध्यान उचित नहीं। कोसी मैया की बातों पर भी हँसने की आवश्यकता नहीं।... मैया के माँ-बाप का नाम? जिसका कोई बाप नहीं, बाबा भोला उसका बापय जिसकी कोई माँ नहीं, माता उसकी गौरा पारवती।


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रचनाएँ
परती परिकथा
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परती परिकथा फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा रचित हिंदी उपन्यास है। मैला आँचल के बाद यह रेणु का दूसरा आंचलिक उपन्यास था। इसमें परानपुर गाँव का अंचल ही नायक है । समाज गाँवों में बिखरा हुआ है और प्रत्येक गाँव की अपनी खास पहचान है। 'परती-परिकथा'उसका प्रमाण है। इस उपन्यास में देहातों की वास्तविकता का चित्रण हुआ है। व्यक्ति की नहीं, व्यक्तियों के सामूहिक व्यक्तित्व के प्रतीक अंचल पूर्णियाँ'परानपुर' गाँव को नायकत्व मिला है, जिसके कारण यह उपन्यास एक कथासागर-सा बन गया है।
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परती परिकथा भाग 1

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भाग 3

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किन्तु, पंडुकी का जितू आज भी सोया अधूरी कहानी का सपना देख रहा है। वन्ध्या रानी माँ का सारा सुख-ऐश्वर्य छिपा हुआ है सोने के एक कलम में, बिजूबन-बिजूखंड के राक्षस के पास। देवी का खाँड़ा कौन उठाए? पंखराज

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परानपुर गाँव के पूरब-उत्तर-कछुआ-पीठा भूमि पर खड़ा होकर एक नौजवान देख रहा है-अपने कैमरे की कीमती आँख से-धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर। पतिता भूमि, बालूचरों की श्रृंखला। हिमालय की चोटी पर डूबते हुए सूरज

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भाग 5

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बैलगाड़ी पर जा रहे हैं सुरपतिराय। दरभंगा जिले से आए हैं। डॉक्टरेट की तैयारी कर रहे हैं। नदियों के घाटों के नाम, नाम के साथ जुड़ी हुई कहानी नोट करते हैं, गीत सुनते हैं और थीसिस लिखते हैं। रानीड़बी घाट

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भाग 6

18 जुलाई 2022
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परानपुर बहुत पुराना गाँव है।...1880 साल में मि. बुकानन ने अपनी पूर्णिया रिपोर्ट में इस गाँव के बारे में लिखा है-परातन ग्राम परानपर। इस इलाके के लोग परानपुर को सारे अंचल का प्राण कहते हैं। अक्षरश: सत्य

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जित्तू अधुरी कहानी के सपने देखता सोया पड़ा है। वह कैसे जगेगा? वह नहीं जगेगा तो देवी मन्दिर का खाँड़ा कौन उठाएगा...? एक-एक आदमी पापमुक्त कब तक होगा? उठ जित्तू! तुर-तुत्तु-उ-तू-ऊ-तू-ऊ! ग्राम परानपुर, थ

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भाग 8

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परानपुर गाँव के पच्छिमी छोर पर परानपुर इस्टेट की हवेली है। पोखरे के दक्खिनवाले महार पर नारियल, सुपारी, साबूदाना तथा यूक्लिप्टस के पेड़ों में बया के सैकड़ों घोंसले लटक रहे हैं। महार से दस रस्सी दर हैं

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लैंड सर्वे सेटलमेंट! जमीन की फिर से पैमाइश हो रही है, साठ-सत्तर साल बाद। भूमि पर अधिकार! बँटैयादारों, आधीदारों का जमीन पर सर्वाधिकार हो सकता है, यदि वह साबित कर दे कि जमीन उसी ने जोती-बोई है। चार आद

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बौंडोरी! बौंडोरी!... सर्वे का काम शुरू हो गया है। अमीनों की फौज उतरी है!... बौंडोरी, बौंडोरी! बौंडोरी अर्थात् बाउंड्री। सर्वे की पहली मंजिल। अमीनों के साथ ही गाँव में नए शब्द आए हैं-सर्वे से सम्बन्ध

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...खेत-खलिहान, घाट-बाट, बाग-बगीचे, पोखर-महार पर खनखनाती जरीब की कड़ी घसीटी जा रही है-खन-खन-खन! नया नक्शा बन रहा है। नया खाता, नया पर्चा और जमीन के नए मालिक। तनाजा के बाद तसदीका तसदीक करने के लिए का

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सर्वे सेटलमेंट के हाकिम साहब परेशान हैं। परानपुर इस्टेट की कोई भी जमा ऐसी नहीं जो बेदाग़ हो। सभी जमा को लेकर एकाधिक खूनी मुकदमे हुए हैं; आदमी मरे हैं, मारे गए हैं।...ऐसे मामलों में बगैर जिला सर्वे ऑफि

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भाग 13

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दुलारीदायवाली जमा में मुसलमानटोली के मीर समसुद्दीन ने तनाजा दिया है। ढाई सौ एकड़ प्रसिद्ध उपजाऊ जमीन एक चकबन्दी और पाँच कुंडों में तीन पर पन्द्रह साल से आधीदारी करने का दावा किया है उसने। समसुद्दीन म

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भाग 14

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दस्तावेज से प्रभावित होकर हाकिम टिफिन के लिए उठ गए हैं। इतनी देर में लत्तो ने अपनी बदधि लड़ाकर बहत-सी कटहा बातें तैयार कर ली हैं। हाकिम के आते ही लुत्तो ने कहा- हुजूर! भारी जालिया खानदान है मिसर खानदा

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भाग 15

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लुत्तो को मरमचोट लगी है। मर्मस्थल में चोट लगती है उसके, जब कोई उसे खवास कह बैठता है। अपने पुरखे-पीढ़ी के पुराने लोगों पर गुस्सा होता है। दुनिया में इतने नाम रहते जाति का नाम खवास रखने की क्या जरूरत थी

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