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भाग 16

22 जुलाई 2022

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना चाहें तो? मुझे ही कोई सलाह लेनी हो तो? चिट्ठी-पत्री कौन लिखता है आज? किसके पास इतना फालतू समय है? और सरला दीदी भी तो हैं शहर में, उनसे नहीं बात करनी है क्या आप और मम्मी को?... तो हर हाल में जरूरी है यह। गाँव में ही बेमतलब थोड़े लिए हैं लोगों ने?

फोन लगा तो राजू के लिए। जब भी घर में रहता था, जुटा रहता था उस पर - कभी इस दोस्त को, कभी उस दोस्त को। संजू की तो लाइन ही नहीं मिलती थी! हाँ, कभी-कभी सरला जरूर मिल जाती थी! अब, जब राजू बाहर है तो फोन उसी तरह बेकार पड़ा था जैसे चरनी और खूँटा या हल और हेंगा!

इसीलिए रात में जब फोन की घंटी बजी तो रघुनाथ और शीला ने डर कर एक दूसरे को देखा! घंटी बज कर बंद हो गई, उनमें से किसी ने उत्साह नहीं दिखाया! जब दूसरी बार बजी तब रघुनाथ उठे और रिसीवर उठाया - 'हलो!'

दूसरी तरफ से स्वर सोनल का था। पहचाना उन्होंने। देर तक सुनते रहे फिर शीला को रिसीवर पकड़ा दिया! और माथे पर हाथ रख कर चुपचाप बैठ गए!

थोड़ी देर बाद दोनों तरफ से सुबकने की आवाज सुनाई पड़ी उन्हें!

वे उठे और अपने बिस्तर पर आ गए!

रिसीवर रख कर शीला भी आई और अपने बिस्तरे पर बैठ गई!

'वह कल आ रही है हमें ले जाने के लिए!'

'तुम्हें जाना हो जाओ, मुझे नहीं जाना!'

'बहुत रो रही थी! पूछ रही थी कि हमारी कौनसी ऐसी गलती है कि देखने के लिए आना तो दूर, आप लोगों ने फोन तक नहीं किया?'

'उसने किया फोन? हम सपना देख रहे हैं कि महारानी लौट आई हैं अपने देश? आकाशवाणी हुई थी उनके आगमन की?'

'यह तो न बोलो। राजू ने नहीं बताया था?'

'मैं किसी राजू-फाजू को नहीं जानता! उसने क्यों नहीं किया? बाप को कर सकती थी, ससुर को नहीं कर सकती? बाप को बुलाया, ज्वाइन किया, अशोक विहार आई, इतने दिन से रह रही है, बीच में पापा-मम्मी नहीं याद आए, आज याद आ रहे हैं! ऐसे ही तो नहीं याद आए हैं कोई बात होगी जरूर!

'रो-रो कर कह रही थी कि मैं पापा-मम्मी के बिना नहीं रह सकती!'

'झूठ बोलती है! फुसला रही है तुम्हें हमें। जानती ही कितना है हमें? न कभी देखा है, न मिली है, वह क्या जाने पापा-मम्मी को? मैं तो जानता भी नहीं कि मेरे कोई बहू है!'

'बहू न सही, बेटा तो है! न जाएँ तो वह क्या सोचेगा?'

'भाड़ में जाए बेटा बेटी बहू - दुनिया! सबकी चिंता करने के लिए हमीं हैं?' रघुनाथ खासे तनाव में आ गए!

'उसे तो चिंता है कि लोग क्या कहेंगे? सास-ससुर गाँव में पड़े हैं और बहू शहर में मजे कर रही है।'

'यह तुम कह रही हो - अपने मन से। समझा? कुछ कहलाओ मत मुझसे!' रघुनाथ उठे और आँगन में टहलने लगे।

नींद गायब हो चुकी थी उनकी! वे कोई निर्णय नहीं कर पा रहे थे। वे गाँव से आजिज भी आ गए थे लेकिन उसे छोड़ना भी नहीं चाहते थे! मन शहर और कालोनी की ओर बहक रहा था - जीवन के नएपन की ओर, नई जिंदगी की ओर, साफ सुथरे पक्के मकानों और कोलतार पुती सड़कों की ओर, गंगा के घाटों की ओर, अनजाने नए संबंधों की ओर। ये आकर्षण थे मन के लेकिन उधर जाने में हिचक भी रहा था मन कि कहीं ऐसा न हो कि पिछवाड़े की जमीन हाथ से निकल जाए, बिना रख-रखाव के मकान ढह जाए, सनेही चोरी और बेइमानी शुरू न कर दे, कहीं लोग हमेशा के लिए गाँव से गया न मान लें। और ऐसा कहनेवाले भी तो कम न होंगे कि देवेश ने एड़ क्या लगाई कि गाँव ही छोड़ कर भाग गए। इससे बड़ी जगहँसाई और क्या हो सकती है?

वे आँगन का चक्कर काटते हुए वहाँ खड़े हो गए जहाँ से खपरैलों से ऊपर उठता चाँद नजर आ रहा था। वे उसे ऐसे देखने लगे जैसे गाँव छोड़ने के बाद फिर नहीं दिखेगा - या उससे पूछ रहे हों कि तुम्हीं बोलो - क्या करना चाहिए?

यह चैत महीने की रात थी! दशरथ यादव ने अपने दरवाजे के सामने नया-नया शिव मंदिर बनवाया था! पिछले दस घंटे से वहाँ अखंड हरिकीर्तन चल रहा था। कीर्तनियों ने मंदिर के बगल में खड़े नीम के पेड़ पर लाउडस्पीकर बाँध रखा था और पूरा गाँव 'हरे राम, जै जै राम' से गूँज रहा था! यह एकरस और उबाऊ गूँज उनके मन को बोझिल बना रही थी!

'तुम जाओ, मैं यहीं रहूँगा अपने घर! सुना?' उन्होंने ऊँची आवाज में शीला से कहा!

'तुम्हें अकेला छोड़ कर? ना बाबा ना, पता नहीं क्या हो जाए यहाँ?' शीला वहीं से बोली - 'और वह भी तो घर ही है। संजू क्या कहता था? हम चाहते हैं कि पापा-मम्मी के अंतिम दिन काशी में बीतें। चैन से बीतें। जब समय आया है तो ना नुकुर कर रहे हो? सोनल पराई नहीं, बहू है हमारी!'

'तुम समझती क्यों नहीं? सोनल बहू है लेकिन घर बहू का है, हमारा नहीं! किस हैसियत से जाऊँ मैं? मेहमान बन कर? किराएदार बन कर? किस हैसियत से?'

इस ओर ध्यान नहीं गया था शीला का। वह थोड़ी देर के लिए तो अचकचाई, फिर बोली - 'ठीक है, उसका घर है मगर संजू तो है न? वह तो हमारा बेटा है। देर सबेर तो आना ही है उसे! राजू से उसी ने कहा था न कि पापा-मम्मी को भेज दो। और सोचो तो बहू का घर क्या हमारा घर नहीं है!'

रघुनाथ चुप रहे! कुछ नहीं बोले।

'देखो, हम चलें। ऐसा नहीं कि यह घर छोड़ कर जा रहे हैं। कभी भी लौट आएँगे इसमें! जब परेशानी होगी तो आ जाएँगे! खेती का जिम्मा दे ही दिया है सनेही को! रह गया है घर तो दस बिस्सा खेत और दे दो गनपत को। कमरे सब बंद करके दरवाजे की ताली उसे दे दो। साफ-सफाई और देखभाल करता रहेगा।'

शीला की बात में दम दिखाई पड़ा रघुनाथ को। उन्हें चार दिन बाद जाना भी था पेंशन के काम से। दिक्कत केवल यही थी कि गनपत मिर्जापुर गया था अपने बेटे के पास!

'तो ऐसा करो शीला, तुम तो सोनल के पास कल जाओ! मैं यहाँ की व्यवस्था करके पाँचवें दिन पहुँचूँगा! पेंशन आफिस में अपना काम निपटा कर सीधे अशोक नगर आ जाऊँगा! कोई जरूरी बात हो तो फोन पर खबर कर देना! अरे हाँ, फोन का कनेक्शन भी तो कटवाना पड़ेगा! खैर, अपनी तैयारी करो तुम - गेहूँ, चावल, दाल, घी, अचार। थोड़ा बहुत जो ले जा सको, ले जाओ!'

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रचनाएँ
रेहन पर रग्घू
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रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है
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भाग 1

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवा

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भाग 2

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पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे। वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे। और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग

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भाग 3

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ऐसी मुसीबत में रघुनाथ को किसी और ने नहीं, उन्हीं के बेटों ने डाला था! बेटों में भी संजय ने! खास तौर से संजय ने! और यह लंबी कहानी है - राँची से केलिफोर्निया तक फैली। संजय ने प्यार किया था सोनल को! य

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भाग 4

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जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में। न बारात, न बाजा-गाजा! प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए! ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे

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भाग 5

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सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे? पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे! कई लोचे थे उसकी दुविधा में! अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव मह

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भाग 6

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सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने! वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल क

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भाग 7

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जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने! बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने। यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ म

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भाग 8

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सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को। पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदल

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भाग 9

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सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई। रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से म

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भाग 10

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काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर क

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भाग 11

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रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था। ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ मह

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भाग 12

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पहलवान माने छब्बू पहलवान। पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ

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भाग 13

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छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे! जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देख

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भाग 14

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रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे! 'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

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भाग 15

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इन्हीं दिनों रघुनाथ को एक इलहाम हुआ। कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय

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भाग 16

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना

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भाग 17

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रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन! इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ! बहुत सोच-विचार क

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वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था। बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहा

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भाग 19

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इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी। तीन साल बाद। उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्हो

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शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को? सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के

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शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई। जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर

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भाग 22

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>रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी

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भाग 23

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद! यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहर

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भाग 24

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भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल! कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न ह

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रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोता

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भाग 26

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो! यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता ह

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भाग 27

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवा

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भाग 28

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रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रो

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भाग 29

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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी। वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी -

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