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भाग 27

22 जुलाई 2022

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी!

शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवाजे भड़-भड़ करते हुए अपने आप बंद होने लगे - खुलने लगे। सिटकनी छिटक कर कहीं गिरी, ब्यौंड़े कहीं गिरे जैसे धरती हिल उठी हो, दीवारें काँपने लगी हों। आसमान काला पड़ गया और चारों ओर घुप्प अँधेरा।

वे उठ बैठे!

आँगन और लान बड़े-बड़े ओलों और बर्फ के पत्थरों से पट गए और बारजे की रेलिंग टूट कर दूर जा गिरी - धड़ाम! उसके बाद जो मूसलाधार बारिश शुरू हुई तो वह पानी की बूँदें नहीं थीं - जैसे पानी की रस्सियाँ हों जिन्हें पकड़ कर कोई चाहे तो वहाँ तक चला जाए जहाँ से ये छोड़ी या गिराई जा रही हों। बादल लगातार गड़गड़ा रहे थे- दूर नहीं, सिर के ऊपर जैसे बिजली तड़क रही थी; दूर नहीं, खिड़कियों से अंदर आँखों में।

इकहत्तर साल के बूढे रघुनाथ भौंचक! यह अचानक क्या हो गया ? क्या हो रहा है?

उन्होंने चेहरे से बंदरटोपी हटाई, बदन पर पड़ी रजाई अलग की और खिड़की के पास खड़े हो गए!

खिड़की के दोनों पल्ले गिटक के सहारे खुले थे और वे बाहर देख रहे थे।

घर के बाहर ही कदंब का विशाल पेड़ था लेकिन उसका पता नहीं चल रहा था - अँधेरे के कारण, घनघोर बारिश के कारण! छत के डाउन पाइप से जलधारा गिर रही थी और उसका शोर अलग से सुनाई पड़ रहा था!

ऐसा मौसम और ऐसी बारिश और ऐसी हवा उन्होंने कब देखी थी ? दिमाग पर जोर देने से याद आया - साठ-बासठ साल पहले! वे स्कूल जाने लगे थे - गाँव से दो मील दूर! मौसम खराब देख कर मास्टर ने समय से पहले ही छुट्टी दे दी थी। वे सभी बच्चों के साथ बगीचे में पहुँचे ही थे कि अंधड़ और बारिश और अँधेरा! सबने आम के पेड़ों के तने की आड़ लेना चाहा लेकिन तूफान ने उन्हें तिनके की तरह उड़ाया और बगीचे से बाहर धान के खंधों में ले जा कर पटका! किसी के बस्ते और किताब कापी का पता नहीं! बारिश की बूँदें उनके बदन पर गोली के छर्रों की तरह लग रही थीं और वे चीख-चिल्ला रहे थे। अंधड़ थम जाने के बाद - जब बारिश थोड़ी कम हुई तो गाँव से लोग लालटेन और चोरबत्ती ले कर निकले थे ढूँढ़ने!

यह एक हादसा था और हादसा न हो तो जिंदगी क्या?

और यह भी एक हादसा ही है कि बाहर ऐसा मौसम है और वे कमरे में है।

कितने दिन हो गए बारिश में भीगे?

कितने दिन हो गए लू के थपेड़े खाए?

कितने दिन हो गए जेठ के घाम में झुलसे?

कितने दिन हो गए अँजोरिया रात में मटरगश्ती किए?

कितने दिन हो गए ठंड में ठिठुर कर दाँत किटकिटाए?

क्या ये इसीलिए होते हैं कि हम इनसे बच के रहें? बच-बचा के चलें? या इसलिए कि इन्हें भोगें, इन्हें जिएँ, इनसे दोस्ती करें, बतियाएँ, सिर-माथे पर बिठाएँ?

हम इनसे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे ये हमारे शत्रु हैं! क्यों कर रहे हैं ऐसा?

इधर एक अरसे से रघुनाथ को लग रहा था कि वह दिन दूर नहीं जब वे नहीं रहेंगे और यह धरती रह जाएगी! वे चले जाएँगे और इस धरती का वैभव, इसका ऐश्वर्य, इसका सौंदर्य - ये बादल, ये धूप, ये पेड़-पौधे, ये फसलें, ये नदी-नाले, कछार, जंगल, पहाड़ और यह सारा कुछ यहीं छूट जाएगा! वे यह सारा कुछ अपनी आँखों में बसा लेना चाहते हैं जैसे वे भले चले जाएँ, आँखें रह जाएँगी; त्वचा पर हर चीज की थाप सोख लेना चाहते हैं जैसे त्वचा केंचुल की तरह यहीं छूट जाएगी और उसका स्पर्श उन तक पहुँचाती रहेगी!

उन्हें लग रहा था कि बहुत दिन नहीं बचे हैं उनके जाने में! मुमकिन है वह दिन कल ही हो, जब उनके लिए सूरज ही न उगे। उगेगा तो जरूर, लेकिन उसे दूसरे देखेंगे - वे नहीं! क्या यह संभव नहीं कि वे सूरज को बाँध कर अपने साथ ही लिए जाएँ - न वह रहे, न उगे, न कोई और देखे! लेकिन एक सूरज समूची धरती तो नहीं, वे किस-किस चीज को बाँधेंगे और किस-किस को देखने से रोकेंगे?

उनकी बांहें इतनी लंबी क्यों नहीं हो जातीं कि वे उसमें सारी धरती समेट लें और मरें या जिएँ तो सबके साथ!

लेकिन एक मन और था रघुनाथ का जो उन्हें धिक्कारे जा रहा था - कल तक कहाँ था यह प्यार? धरती से प्यार की यह ललक? यह तड़प? कल भी यही धरती थी। ये ही बादल, आसमान, तारे, सूरज चाँद थे! नदी, झरने, सागर, जंगल, पहाड़ थे। ये ही गली, मकान, चौबारे थे! कहाँ थी यह तड़प? फुरसत थी इन्हें देखने की? आज जब मृत्यु बिल्ली की तरह दबे पाँव कमरे में आ रही है तो बाहर जिंदगी बुलाती हुई सुनाई पड़ रही है?

सच-सच बताओ रघुनाथ, तुम्हें जो मिला है उसके बारे में कभी सोचा था? कभी सोचा था कि एक छोटे-से गाँव से ले कर अमेरिका तक फैल जाओगे? चौके में पीढ़े पर बैठ कर रोटी प्याज नमक खानेवाले तुम अशोक विहार में बैठ कर लंच और डिनर करोगे?

लेकिन रघुनाथ यह सब नहीं सुन रहे थे। यह आवाज बाहर की गड़गड़ाहट और बारिश के शोर में दब गई थी। वे अपने वश में नहीं थे। उनकी नजर गई कोने में खड़ी छड़ी और छाते पर! जाड़े की ठंड यों भी भयानक थी और ऊपर से ये ओले और बारिश। हिम्मत जवाब दे रही थी फिर भी उन्होंने दरवाजा खोला। खोला या वे वहाँ खड़े हुए और अपने आप खुल गया! भीगी हवा का सनसनाता रेला अंदर घुसा और वे डर कर पीछे हट गए! फिर साहस बटोरा और बाहर निकलने की तैयारी शुरू की! पूरी बाँह का थर्मोकोट पहना, उस पर सूती शर्ट, फिर उस पर स्वेटर, ऊपर से कोट। ऊनी पैंट पहले ही पहन चुके थे। यही सुबह जाड़े में पहन कर टहलने की उनकी पोशाक थी! था तो मफलर भी लेकिन उससे ज्यादा जरूरी था - गमछा! बारिश को देखते हुए! जैसे-जैसे कपड़े भीगते जाएँगे, वे एक-एक कर उतारते और फेंकते चले जाएँगे और अंत में साथ रह जाएगा यही गमछा!

वे अपनी साज-सज्जा से अब पूरी तरह आश्वस्त थे लेकिन नंगे बिना बालों के सिर को ले कर दुविधा में थे - कनटोप ठीक रहेगा या गमछा बाँध लें।

ओले जो गिरने थे, शुरू में ही गिर चुके थे, अब उनका कोई अंदेशा नहीं!

उन्होंने गमछे को गले के चारों ओर लपेटा और नंगे सिर बाहर आए!

अब न कोई रोकनेवाला, न टोकनेवाला। उन्होंने कहा - 'हे मन! चलो, लौट कर आए तो वाह-वाह! न आए तो वाह-वाह!'

बर्फीली बारिश की अँधेरी सुरंग में उतरने से पहले उन्होंने यह नहीं सोचा था कि भीगे कपड़ों के वजन के साथ एक कदम भी आगे बढ़ना उनके लिए मुश्किल होगा।

वे अपने कमरे से तो निकल आए लेकिन गेट से बाहर नहीं जा सके!

छाता खुलने से पहले जो पहली बूँद उनकी नंगी, खल्वाट खोपड़ी पर गिरी, उसने इतना वक्त ही नहीं दिया कि वे समझ सकें कि यह बिजली तड़की है या लोहे की कील है जो सिर में छेद करती हुई अंदर ही अंदर तलवे तक ठुँक गई है! उनका पूरा बदन झनझना उठा। वे बौछारों के डर से बैठ गए लेकिन भीगने से नहीं बच सके। जब तक छाता खुले, तब तक वे पूरी तरह भीग चुके थे!

अब वे फँस चुके थे - बर्फीली हवाओं और बौछारों के बीच। हवा तिनके की तरह उन्हें ऊपर उड़ा रही थी और बौछारें जमीन पर पटक रही थीं! भीगे कपड़ों का वजन उड़ने नहीं दे रहा था और हवा घसीटे जा रही थी! उन्हें इतना ही याद है कि लोहे के गेट पर वे कई बार भहरा कर गिरे और यह सिलसिला सहसा तब खत्म हुआ जब छाते की कमानियां टूट गई और वह उड़ता हुआ गेट के बाहर गायब हो गया। अब उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे हवा जगह-जगह से नोच रही हो और पानी दाग रहा हो - जलते हुए सूजे से!

अचेत हो कर गिरने से पहले उनके दिमाग में ज्ञानदत्त चौबे कौंधा - उनका मित्र! उसने दो बार आत्महत्या करने की कोशिशें कीं - पहली बार लोहता स्टेशन के पास रेल की पटरी पर नगर से दूर निर्जन जहाँ किसी का आना-जाना नहीं था! समय उसने सामान्य पैसेंजर या मालगाड़ी का नहीं, एक्सप्रेस या मेल का चुना था कि जो होना हो, 'खट्' से हो, पलक झपकते, ताकि तकलीफ न हो। वह पटरी पर लेटा ही था कि मेल आता दिखा! जाने क्यों, उसमें जीवन से मोह पैदा हुआ और उठ कर भागने को हुआ कि घुटनों के पास से एक पैर खचाक्‌।

यह मरने से ज्यादा बुरा हुआ! बैसाखियों का सहारा और घरवालों की गलियाँ और दुत्कार! एक बार फिर आत्महत्या का जुनून सवार हुआ उस पर! अबकी उसने सिवान का कुआँ चुना! उसने बैसाखी फेंक छलाँग लगाई और पानी में छपाक्‌ कि बरोह पकड़ में आ गई! तीन दिन बिना खाए-पिए भूखा चिल्लाता रहा कुएं में - और निकला तो दूसरे टूटे पैर के साथ!

आज वही ज्ञानदत्त - बिना पैरों का ज्ञानदत्त चौराहे पर पड़ा भीख माँगता है। मरने की ख्वाहिश ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा! मगर यह कमबख्त ज्ञानदत्त उनके दिमाग में आया ही क्यों? वे मरने के लिए तो निकले नहीं थे? निकले थे बूँदों के लिए, ओले के लिए, हवा के लिए। उन्होंने नतीजा निकाला कि जीवन के अनुभव से जीवन बड़ा है। जब जीवन ही नहीं, तो अनुभव किसके लिए।

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रचनाएँ
रेहन पर रग्घू
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रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है
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भाग 1

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवा

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भाग 2

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पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे। वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे। और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग

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भाग 3

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ऐसी मुसीबत में रघुनाथ को किसी और ने नहीं, उन्हीं के बेटों ने डाला था! बेटों में भी संजय ने! खास तौर से संजय ने! और यह लंबी कहानी है - राँची से केलिफोर्निया तक फैली। संजय ने प्यार किया था सोनल को! य

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भाग 4

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जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में। न बारात, न बाजा-गाजा! प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए! ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे

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भाग 5

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सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे? पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे! कई लोचे थे उसकी दुविधा में! अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव मह

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भाग 6

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सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने! वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल क

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भाग 7

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जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने! बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने। यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ म

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भाग 8

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सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को। पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदल

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भाग 9

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सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई। रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से म

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भाग 10

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काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर क

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भाग 11

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रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था। ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ मह

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भाग 12

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पहलवान माने छब्बू पहलवान। पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ

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भाग 13

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छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे! जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देख

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भाग 14

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रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे! 'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

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भाग 15

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इन्हीं दिनों रघुनाथ को एक इलहाम हुआ। कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय

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भाग 16

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना

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भाग 17

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रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन! इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ! बहुत सोच-विचार क

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भाग 18

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वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था। बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहा

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भाग 19

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इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी। तीन साल बाद। उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्हो

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भाग 20

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शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को? सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के

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भाग 21

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शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई। जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर

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भाग 22

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>रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी

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भाग 23

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद! यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहर

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भाग 24

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भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल! कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न ह

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रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोता

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भाग 26

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो! यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता ह

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भाग 27

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवा

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भाग 28

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रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रो

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भाग 29

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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी। वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी -

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