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भाग 18

22 जुलाई 2022

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वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था।

बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहार और कालोनियाँ नहीं। इनका निर्माण शुरू हुआ 1980-1990 के आसपास जब पूर्वांचल और बिहार में भू-माफियाओं और बाहुबलियों का उदय हुआ! उन्होंने नगर के दक्खिन, पच्छिम और उत्तर बसे गाँव के गाँव खरीदे और उनकी 'प्लाटिंग' करके बेचना शुरू किया! देखते-देखते पंद्रह-बीस वर्षों के अंदर गाँव के वजूद खत्म हो गए और उनकी जगह नए-नए नामों के साथ नगर, कालोनियाँ और विहार बस गए!

यह नया बनारस था - महानगरों की तर्ज का।

मुहल्लों में रहनेवाले मुहल्लों और महलों में ही रहे - अपने पुश्तैनी काम-धंधों, दुकानों, रोजगारों और घाटों के साथ लेकिन इन कालोनियों में बसनेवाले ज्यादातर नए नागरिक थे!

ये बाहर से आए थे। आसपास के जनपदों से! जिलों से! सौ पचास किलोमीटर की दूरी से! इनके अपने गाँव थे, थोड़ी बहुत जमीन थी, खेती बारी थी। उन्हें समय-समय पर बनारस आना ही पड़ता था - कभी कोर्ट कचहरी के काम से, कभी अस्पताल के काम से, कभी तीरथ-बरत के लिए, कभी शादी ब्याह की खरीददारी के लिए, कभी बच्चों के ऐडमीशन और पढ़ाई के लिए। बार-बार आ कर लौटने से बेहतर था कि यहाँ ठहरने और रुकने का एक स्थायी ठिकाना हो, एक डेरा हो।

लेकिन ऐसा सिर्फ उन्हीं के लिए संभव था जिनके पास अपनी कोई छोटी मोटी नौकरी हो; और अगर वह नौकरी काफी न हो तो बेटों में से कम से कम एक बाहर कमा रहा हो जिसके बच्चे गाँव में बोर होते हों और वहाँ नहीं रहना चाहते, शहर के आदी हो गए हों और अपना हित उधर ही देखना चाहते हों।

हालाँकि गाँव में वह सब पहुँच रहा था धीरे धीरे, जो शहर में था - बिजली भी, नल भी, फ्रिज भी, फोन भी, टी.वी. भी, अखबार भी लेकिन वह मजा नहीं था जो शहर में था। मजा था भी तो उनके लिए जिनके पास ट्रैक्टर था, थ्रेशर था, पंपिंग सेट था, बोलेरो या सफारी थी, जो खेती पेट के लिए नहीं, व्यवसाय के लिए कर रहे थे, जो एक नहीं, एक ही साथ सभी राजनीतिक पार्टियों के हमदर्द और मददगार थे!

ऐसे लोगों की कालोनियाँ भी दूसरी-दूसरी थीं - लंबे चौड़े प्लाटोंवाली!

लेकिन 'अशोक विहार' उनकी कालोनी थी जो अध्यापक थे, बाबू थे, दोयम दर्जे के सरकारी गैर-सरकारी कर्मचारी थे और इससे भी खास बात यह कि जो या तो रिटायर हो चुके थे या निकट भविष्य में रिटायर होनेवाले थे!

न तो अखबारों में कोई विज्ञापन था, न किसी नुक्कड़ पर इस आशय की होर्डिंग कि इस कालोनी के प्लाट उन्हीं को बेचे जाएँगे जो पचास-पचपन से ऊपर के होंगे और जल्दी ही रिटायर होंगे लेकिन जाने यह कैसे हुआ कि जब कालोनी तैयार हुई तो पाया गया कि यह बूढ़ों की कालोनी है! ऐसे बूढ़े-बूढ़ियों की जिनके बेटे-बेटी अपनी बीवी और बच्चों के साथ परदेस में नौकरी कर रहे हैं - कोई कलकत्ता है, तो कोई दिल्ली, कोई मुंबई तो कोई बंगलौर और कइयों के तो विदेश में।

इनका दुःख अपरंपार था। इन्होंने बेटे-बेटियों के लिए अपने गाँव छोड़े थे - अपनी जन्मभूमि - कि यह हमारे लिए तो ठीक, चाहे जैसे रह लें लेकिन उनके लिए नहीं। न बिजली, न पानी, न लिखने-पढ़ने, न आने-जाने की सुविधा! घर हो तो ऐसी जगह जहाँ से खेती-बारी पर भी नजर रखी जा सके और बेटों-बेटियों को भी असुविधा न हो! वे अपनी जगह-जमीन, रिश्ते-नाते, संगी-साथी, बाग-बगीचे, ताल-तलैया छोड़ कर जिन संतानों के लिए आए, वे ही बाहर। इतने तक तो गनीमत थी। लेकिन अब हालत यह है कि जो जहाँ सर्विस कर रहा है, वह उसी नगर में रम गया है और वहाँ से लौट कर यहाँ नहीं आना चाहता। अगर वह आना भी चाहता है तो उसके बच्चे नहीं आना चाहते!

लीजिए यह नई मुसीबत!

जिनके लिए बेघर हुए उन्हीं के अपने अलग घर!

यह नई मुसीबत न उन्हें जीने दे रही थी, न मरने दे रही थी। गाँव पर पुश्तैनी जमीन-जायदाद। बाप-दादों की धरोहर। न देखो तो कब दूसरे कब्जा कर लें, कहना मुश्किल। पुरखों ने तो एक-एक कौड़ी बचा कर, पेट काट कर, जोड़-जोड़ कर जैसे-तैसे जमीनें बढ़ाई ही, चार की पाँच ही कीं - तीन नहीं होने दीं और यहाँ यह हाल! जरा-सा गाफिल हुए कि मेड़ गायब! महीने दो-महीने में कम से कम एक बार गाँव का चक्कर लगाते रहो। देख लें लोग कि नहीं हैं; ध्यान है। हाल-चाल लेते रहो, कुशल-मंगल पूछते रहो, खुशी-गमी में जाते रहो, सब से बनाए रखो। अधिया या बँटाई पर खेती करो तब भी। दिया-बाती और घर-दुआर की देख-रेख के लिए कोई नौकर-चाकर रखो तब भी!

उनके बेटों के बचपन गाँव में बीते थे। नगर में पढ़ाई के दौरान भी वे आते-जाते रहते थे गाँव पर। उन्होंने खेती भले न की हो लेकिन उन्हें इतना पता था कि उनके खेत कहाँ-कहाँ हैं, कौन-कौन से हैं - धान के, गेहूँ के, दलहन के? उन्हें थोड़ी-बहुत जानकारी थी। खेल या कुतूहल में ही सही, बाप-चाचा के साथ लगे रह कर उन्होंने अगोर की थी, बुआई-कटाई देखी थी। लोग भी जानते थे कि यह फलाने का बेटा या भतीजा है। गाँव-घर से माया-मोह के लिए इतना कम नहीं था लेकिन उनके बच्चे? वे तो दादा-दादी को छोड़ कर पहचानते ही किसको हैं? और दादा-दादी को भी कितना पहचानते हैं? चिंता उसकी होती है जिससे मोह होता है, प्रेम होता है; जिससे प्रेम ही नहीं, परिचय और संबंध ही नहीं, उसकी क्या चिंता? खेत भी उसे पहचानते हैं जो उनके साथ जीता- मरता है। वे खेतों को क्या पहचानेंगे, खेत ही उन्हें पहचानने से इनकार कर देंगे!

ये सारी बातें बेटों की नजर में 'बुढ़भस' थीं। आप माटी में ही पैदा हुए और एक दिन उसी माटी में मिल जाएँगे! कभी उससे छूटने या ऊपर उठने या आगे बढ़ने की बात ही आपके दिमाग में नहीं आई - क्योंकि उसमें भी गोबर नहीं तो माटी ही थी। क्या कर लिया खेती करके आपने? कौन सा तीर मार लिया? खाद महँगी, बीज महँगा, नहर में पानी नहीं, मौसम का भरोसा नहीं, बैल रहे नहीं, भाड़े पर ट्रैक्टर समय पर मिले, न मिले, हलवाहे और मजूरे रहे नहीं - किसके भरोसे खेती करो? और खेती भी तब करो जब हाथ में बाहर से चार पैसे आएँ? क्या फायदा ऐसी खेती से?

असल चीज पैसा है! अगर हाथ में पैसा हो तो वे सारे जिंस बिना कुछ किए बाजार में मिल जाते हैं जिनके लिए आप रात दिन खून पसीना एक करते हैं। बिना कुछ किए, बिना कहीं गए।

सारी जिच और सारा झगड़ा और सारा बवाल बेटों से उनका चल ही रहा था गाँव को ले कर, कि अब एक नई मुसीबत - 'अशोक विहार' के मकान का क्या होगा? वे जहाँ हैं, वहाँ से आना नहीं चाहते!

ये हैं कि इनसे न गाँव छूट रहा है, न अशोक विहार - दुनिया भले छूट जाए!

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रचनाएँ
रेहन पर रग्घू
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रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है
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भाग 1

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवा

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भाग 2

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पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे। वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे। और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग

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भाग 3

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ऐसी मुसीबत में रघुनाथ को किसी और ने नहीं, उन्हीं के बेटों ने डाला था! बेटों में भी संजय ने! खास तौर से संजय ने! और यह लंबी कहानी है - राँची से केलिफोर्निया तक फैली। संजय ने प्यार किया था सोनल को! य

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भाग 4

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जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में। न बारात, न बाजा-गाजा! प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए! ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे

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भाग 5

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सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे? पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे! कई लोचे थे उसकी दुविधा में! अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव मह

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भाग 6

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सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने! वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल क

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भाग 7

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जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने! बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने। यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ म

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भाग 8

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सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को। पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदल

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भाग 9

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सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई। रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से म

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भाग 10

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काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर क

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भाग 11

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रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था। ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ मह

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भाग 12

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पहलवान माने छब्बू पहलवान। पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ

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भाग 13

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छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे! जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देख

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भाग 14

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रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे! 'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

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भाग 15

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इन्हीं दिनों रघुनाथ को एक इलहाम हुआ। कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय

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भाग 16

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना

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भाग 17

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रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन! इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ! बहुत सोच-विचार क

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भाग 18

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भाग 19

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इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी। तीन साल बाद। उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्हो

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भाग 20

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शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को? सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के

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शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई। जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर

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भाग 22

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>रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी

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भाग 23

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद! यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहर

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भाग 24

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भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल! कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न ह

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रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोता

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भाग 26

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो! यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता ह

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भाग 27

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवा

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भाग 28

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रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रो

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भाग 29

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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी। वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी -

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